सुदेश:छायावाद की छाया
साहित्य सर्जन क्षमता की संभावनाओं तथा उनके अंततः
मध्यवर्गीय जीवन के रोजमर्रापन की नियति की ओर लौटने
के विषय में चर्चा की थी | अपने गाँव वाले घर की सफाई के
दौरान मिली कबाड़ में पायी गयी एक फटी पुरानी डायरी
में सुदेश की चंद कवितायें मिलीं जो अपने शब्द व्यंजना तथा
विषय वैविध्य के चलते काफी देर तक चेतना में गूंजती रहती
हैं| ऐसी ही एक कविता जिसके रचनाकार ने शीर्षक देने का कार्य
संभवतः छोड़ दिया था, और अपनी ओर से मेरा शीर्षक देना
मूल पाठ से बलात्कार सदृश्य होगा अतः यह कार्य पढने वालों
के मत्थे छोड़ते हुए मै कविता को उसके अविकल रूप में
यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ, कविता के कथ्य और शिल्प पर
छायावाद का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर है -
"तुम आये बन एक मधुर याद
इस मंद हवा के झोंकों में
आँखों की ज्योति तुम्ही बस हो
चांदनी रात की कान्ति तुम्ही
हो तुम्ही दीप अंतर्मन के
मेरे गीतों के सरगम तुम
घूँघट सा बन झीना पर्दा
तुम मुझे छिपा कर भावों में
ले चलो दूर इस सागर से
हो जहां न कोई भी बंधन
पाऊं सर्वत्र जहाँ तुमको
तुम ही तुम हो बस भावों में
मन के अन्दर बाहर भी तुम
हो जगह न कोई तुम न जहाँ
चाहे हो पर्ण कुटी अपनी
पर प्यारी होगी तुम जैसी
तुम तो तुम हो
मैं भी बन तुम
देखूं तुमको
बस तुममे ही
तुम भी देखो मेरी आँखों में
यूँ अपलक अविराम
हम एक बनें सर्वदा एक
ऑंखें भी हों आसन्न "
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