रेस्टोरेंट में गीता ज्ञान
यह चित्र सितम्बर माह में जयपुर यात्रा के दौरान लिया गया | यह जौहरी बाजार में
स्थित एक सुविख्यात रेस्टोरेंट के मेनुबूक का आवरण पृष्ठ है जो अपना अपेक्षित
उद्देश्य पूर्ण करने के साथ लगे हाथ गीता का सन्देश भी प्रसारित कर रहा है | संस्कृत
भाषा में अपना हाथ तंग होने कि वजह से मैं इस सन्देश का पूरा अभिप्राय समझ
पाने में असमर्थ हूँ, अगर किसी मित्र को ठीक ठीक इसका मतलब समझ आ रहा
तो इस भाषाई दरिद्र की उदारतापूर्ण सहायता करने की अपील है| वैसे चित्र से यह
स्पष्ट हो रहा है कि यह गीता के सत्रहवें अध्याय का दसवां श्लोक है| यह रेस्टोरेंट
१७२७ ई. में स्थापित होकर अबतक निरंतर जनता की उत्कृष्ट सेवा करने का दावा
करता है, बात मानें इस दावे में वाकई दम है | सेवा और उत्पाद दोनों की दृष्टि से
यह सभी मानदंडों पर खरा उतरता है| ऐतिहासिक तथ्यों पर नजर डालें तो जयपुर
शहर की स्थापना का श्रेय १७२२ ई. में आमेर घराने के विद्वान शासक सवाई जय
सिंह को जाता है, जिनकी स्मृतियों से इस शहर के कोने कोने तमाम रूपों में अटे
पड़े होकर अपने विद्वान ज्योतिर्विद संस्थापक को कृतज्ञता ज्ञापित करते प्रतीत
होते हैं| यह रेस्टोरेंट शहर की स्थापना के पांच वर्ष बाद से अस्तित्व में आकर अबतक,
लोगों की खाने पिने की अभिरुचियों में हुए तमाम युगीन बदलावों का मूक परन्तु जीवंत
साक्षी है| जयपुर जाएँ तो जोहरी बाजार के लक्ष्मी मिष्ठान भंडार में जरुर जाएँ और
मनुष्य के स्वाद के इस जीवित अभिलेख का साक्ष्य करें|
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