सुदेश;नियति की धुंध में कविता का सूर्य
अभी पिछले सप्ताह कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर बलिया में अपने
पैत्रिक गाँव जाने का संयोग बना |कार्तिक पूर्णिमा के समय बलिया में
उत्सव का वातावरण होता है,पूर्णिमा पर समीपवर्ती जिलों से आए असंख्य
श्रद्धालु शहर को तकरीबन छू कर गुजरनेवाली पुण्य सलिला गंगा में
डूबकी लगाते हैं, महर्षि भृगु के मंदिर में गंगाजल अर्पण करते हैं
तथा लगे हाथ इस अवसर का मुख्य आकर्षण ददरी मेला में भी
घुमने का आनंद लेते हैं| यह सब हमलोगों ने बचपन में खूब किया
है, अब तो कार्तिक मेले की भीड़ देख कर कभी कभी ताज्जुब होता
है की बलिया जैसा पूर्वी उत्तर प्रदेश का महत्वहीन एवं हाल के
वर्षों में लगभग उपेक्षित शहर भी एक खास मौके पर साल में
एक बार कितना महत्वपूर्ण हो जाता है की 'मेला स्पेशल' बसें
और ट्रेन चलने लगती हैं,अचानक अपनी जनसँख्या के अनुपात
में आए आगंतुकों की भीड़ से आक्रांत हो जाता है| हमारे घर पर
इस अवसर पर रामचरितमानस का अखंड पाठ होता है, अखंड
मानस पाठ का यह सिलसिला मेरे पिताजी की पहल पर सन
१९७२ ( मेरे जन्म का वर्ष) से अनवरत चल रहा है|इस बार मेरे
पैत्रिक घर की साफ़ सफाई हुई थी तथा इसके चलते घर के तमाम
कोनो में वर्षों से दबी पड़ी आम तौर पर अदृश्य रहनेवाली बेशुमार
चीजें जैसे सतह पर आ कर दृश्य हो गयीं थीं, अम्मां बता रहीं थीं
की मनों कबाड़ बेचा गया है उसके बाद भी तमाम अम्बार कूड़े में
फेंके जाने को तैयार पड़ा है , इसी कूड़े में मुझे अपने किशोरावस्था
के समय की सन १९८८ की एक बिना जिल्द की फटी पुरानी डायरी
हाथ लगी जो बस कबाड़ बिक जाने की नियति से बस किसी तरह
बच गयी थी , इस डायरी में बहुत सारी वक्ती चीजों के साथ साथ
मेरे मित्र और बालसखा सुदेश (जिनका जिक्र मैं अपने खजुराहो
के संस्मरण में भी कर चूका हूँ) की स्वरचित स्वहस्तलिखित
कविता मिली जिसे मै यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ , मुझे अबतक याद
है किसी छुट्टी के सामान्य दोपहर में जब हमलोग आम तौर पर
साथ होते थे सुदेश ने यह कविता अपनी लिखावट में मेरे डायरी
में दर्ज करते हुए मुझसे इसका शीर्षक सुझाने को कहा था ,मेरे
अल्पवय किशोर मन को लगा था की यह भाव किसी 'प्रेमी' अथवा
'इश्वर' को समर्पित हैं और जब सुदेश ने रहस्योद्घाटन सा करते
हुए धीरे से कहा था की दर असल यह मैंने 'मृत्यु' के सम्बन्ध
में लिखा है तो मुझे आश्चर्य का एक झटका सा लगा था|
" प्रतिपल यह प्रणय तुम्हीं से है ,
पर तुम तो हो उस क्षितिज पार
परिचय अपना हो स्वयं तुम्हीं,
हो मौन शब्द तुम निर्विकार
आहुति भावों की तुममें है,
तुम सर्वव्याप्त तुम सर्वश्रेष्ट
हो माया के तुम विध्वंसक,
हे सर्वोपरि तुम हो अजेय "
इस प्रकार की भावाभिव्यक्ति , इस स्तर के शब्द पदों का
चयन यदि कोई १६ वर्ष की अल्प वय में करता है तो सहज
ही अनुमान लगाया जा सकता है कि वह समय के साथ अनुभव
समृद्ध होने पर किस स्तर का साहित्य शिल्पी हो सकता है|
परन्तु यह सब तो तब संभव है जब किसी विद्यार्थी को उसकी
रूचि एवं प्रवृत्ति के अनुरूप स्वतंत्र रूप से किसी अनुशासन
के अनुसरण का अवसर प्रदान किया जाय | वास्तव में हमारा
भारतीय मध्य वर्ग इस ग्रंथि से ग्रस्त है कि हर पढ़ा लिखा व्यक्ति
या तो डॉक्टर या इंजिनियर ही बन सकता है , अन्य किसी
अनुशासन में बौद्धिकता या पढाई लिखाई कि कोई गुंजाइश
शेष नहीं रही | तभी तो हर अभिभावक अपने लाडले को
माध्यमिक शिक्षा के पश्चात् किसी अभियांत्रिकी अथवा
मेडिकल कॉलेज की प्रवेश परीक्षा की तैयारी की प्रेरणा
उपदेश देता रहता है| भारतीय जनमानस की इस ग्रंथि
के पीछे जल्दी रोजगार पा लेने के अवसर या कम समय
में अधिकाधिक धनार्जन की भावना हो सकती है, परन्तु
समस्या यह है की इस प्रकार से गर्भस्थ शिशु के करियर
को जन्म लेने के पूर्व ही तय कर दिए जाने की इस नीति
में उस किशोर की रुचियों प्रवृत्तियों की कोई भूमिका नहीं
होती| इस नीति का व्यावसायिक लाभ के लिए दोहन कोचिंग
संस्थानों ने जमकर किया है , कुछ गुमनाम से लोग किसी
विषय विशेष में सवाल हल कर लेने की खूबी की बदौलत आज
पूंजीपतियों की श्रेणी में पहुँच चुके हैं जबकि हिंदी या इतिहास
दर्शन या मानविकी के किसी विषय में वैसी ही दक्षता रखने
वाला विद्यार्थी अपने अभिभावक की वक्रदृष्टि का शिकार
है जिसमे उसके सफल होने की संभावना को ही संदिग्ध दृष्टि
से देखा जा रहा है| मै तो कभी कभी यह सोचता हूँ की अच्छा
हुआ कि हर बच्चे को इंजिनियर डॉक्टर बनाने की सनक तथा
इनके प्रवेश परीक्षाओं में सफलता की गारंटी लेने वाले पैसा
उगाह कोचिंग संस्थानों की जानकारी लता मंगेशकर,
सचिन तेंदुलकर, अमिताभ बच्चन , रामचंद्र गुहा,अमर्त्यसेन
विनोद दुआ के अभिभावकों को नहीं हुई नहीं तो मानवता
किसी अच्छे स्वर से किसी अच्छे अभिनेता से किसी उत्कृष्ट
इतिहासकार, अर्थशास्त्री या पत्रकार के अवदान से वंचित
रह गयी होती , क्योंकि तब यह सभी लोग किसी कोचिंग
संस्थान में इंजीनियरिंग या मेडिकल प्रवेश परीक्षा में पास
होने के लिए रट्टा मार रहे होते |
अपने मित्र की इस कविता को इतने सालों
बाद पढने और आकलन करने के बाद जाने क्यों अचानक यह
महशुस हुआ की समाज और साहित्य एक प्रतिभाशाली उदीयमान
कवि के साहित्यिक अवदान से वंचित रह गया|न जाने कितने घरों
में ऐसी ही कितनी जन्मजात ईश्वरप्रदत्त प्राकृत प्रतिभाएं इंजीनियरी
डाक्टरी के थोपे गए सपने के खौफ तले कुचली जा रही हैं और समाज
की वंचना का अनुमान लगाना मुश्किल हो जाता है
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