शहर
एक परदेसी प्रीतम की भांति
आवाज़ लगाता था मुझे
आ जाओ प्रिय तुम मेरे पास
बदल दूंगा मैं तुम्हें
आपादमस्तक
होगा तुम्हारे पास व्यक्तित्व
और शायद कृतित्व भी
दुनियावी शान बढ़ेगी
सितारों पर होगा नाम
यह वादा है मेरा
पेट की भूख मिटेगी
तन को चादर भी मिलेगी
सर के ऊपर होगी एक छत
एक टुकड़ी जमीन
एक टुकड़ा आसमान
यह वादा है मेरा
मैं,
एक व्याकुल विरिहिनी
एक पागल प्रियतमा की तरह
दौड़ता गया
परदेसी प्रीतम की पुकार सुन
लगा सचमुच कुछ बदला है
व्यक्तित्व
और शायद कृतित्व भी
पर सहसा अनुभूति हुई
इस तृप्ति के पीछे छिपे अभाव की
बिछड़ा मेरे बाबुल का देस
सखियों की नगरी
गाँव की मादक बयार
और नीम की छांह
मैंने पूछा प्रियतम शहर से
यह अभाव क्यूँ है और क्या है?
उत्तर मिला शहर से
तुम्हारी उन्नति का मूल्य
- २० जनवरी १९९४ ( किशोरावस्था में शब्दों और भावनावों के बीच किया गया
पहला खिलवाड़ जिसे कुछ लोग अपनी उदारता वश कविता
का भी नाम दे सकते हैं)