शुभ दीपमालिके
आज दीपावली पर बहुत सारी छवियाँ , प्रसंग स्मरण आ रहे हैं| प्रत्येक वर्ष आने वाले ये पर्व हमारीजीवन यात्रा के मील के पत्थर हैं जो समय समय पर यात्रा के प्रसंगों को अभिलिखित करने को प्रेरणा
सा देते रहते हैं, आज सुबह सुबह हिंदी दैनिक 'हिंदुस्तान' में हिंदी कवि और लेखक लीलाधर जगूड़ी
का दीपावली के अवसर पर विशेष स्तम्भ पढ़ा | जगूड़ी जी ने बहुत सारी बातें लिख डाली हैं अपने स्तम्भ
में, उसे पढ़ कर बहुत कुछ करने का मन करता है अध्यात्म, संस्कृति एवं लोकमंगल जैसे भिन्नार्थक
व्याप्तियाँ समेटे हुए है जगूढ़ीजी का यह लेख| जैसा मैंने प्रारंभ में कहा इस समय बहुत सारी चीजें याद
आ रही हैं पर इन सबमे विशेषकर 'अज्ञेय' की यह कविता मन पर छाई हुयी है ,
यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इसको भी पंक्ति को दे दो
यह जन है : गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गायेगा
पनडुब्बा : ये मोती सच्चे फिर कौन कृति लायेगा
यह समिधा: ऐसी आग हठीला बिरला सुलगायेगा
यह अद्वितीय : यह मेरा,यह मैं स्वयं विसर्जित
यह मधु है: स्वयं काल की युग मौना का युगसंचय
यह गोरस: जीवन कामधेनु का अमृत पूत पय
यह अंकुर: फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय
यह प्रकृत, स्वयंभू , ब्रह्म,अयुत
इसको भी शक्ति को दे दो
यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी कांपा
वह पीड़ा जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा
कुत्सा , अपमान,अवज्ञा के धुन्धुआते कडवे तम में
यह सदा द्रवित, चिर जागरूक ,अनुरक्त नेत्र
उल्लम्ब बाहू, यह चिर अखंड अपनापा
जिज्ञासु, प्रबुद्ध,सदा श्रद्धामय
इसको भी भक्ति को दे दो
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