लक्ष्मण मंदिर के पूरब दिशा में कुछ दूरी पर कंदरिया महादेव का मंदिर है जो शिव
को समर्पित है उसीके थोडा आगे चित्रगुप्त मंदिर तथा जगदम्बी मंदिर स्थित है|
इन मंदिरों के बीच एक खाली स्थान पर ए एस आई ने पर्यटकों के जलपान की
व्यवस्था हेतु रिफ्रेशमेंट गार्डेन बनाया है जहाँ हम लोगों ने हल्का नाश्ता लिया
और पुनः आगे खजुराहो के शेष सौंदर्य का दर्शन करने निकल पड़े|
पश्चिमी समूह परिसर के ठीक पश्चिम दिशा में मातंगेश्वर मंदिर
है जो खजुराहो का एकमात्र जीवित मंदिर ( जिसमे प्रतिदिन अब भी
पूजा अर्चना की जाती हो)इस मंदिर के बगल में एक सरोवर है
और प्रत्येक अमावस्या को मंदिर में दर्शनार्थियों की काफी भीड़
जमा होती है एवं इस मौके पर अगल बगल के ५-१० किमी के
गावों में रहने वाले ग्रामीणों की रूचि एवं सामर्थ्य के अनुरूप
एक मेला भी लगता है, संयोगवश जिसदिन हमलोग पहुंचे थे
उस दिन अमावस्या थी और अनजाने में ही हमलोग एक विशिष्ट
अवसर के सहभागी बन रहे थे| मेले में औरतें , बच्चे और बूढ़े
सभी प्रचुर मात्रा में मौजूद थे और विदेशी पर्यटकों के लिए ग्रामीण
भारत की रूढ़ हो गयी छवि प्रस्तुत कर रहे थे| पशिमी समूह परिसर के विपरीत
सड़क के दूसरी ओर संग्रहालय एवं पार्क है जहाँ मेलार्थियों ने आज पूरा
कब्ज़ा जमा लिया था एवं हरकोई इस विशिष्ट स्थान का अपने अपने ढंग
एवं जरूरत के मुताबिक पूरी आज़ादी के साथ बिना किसी रोकटोक के
खटके के इस्तेमाल कर रहा था| दृश्य सच कहें तो भारतीय पर्यटन को
शर्मसार कर देने वाला था, हमलोग मेलार्थियों द्वारा फेंके हुए जूठे, अधखाये
भोज्यपदार्थ एवं अन्य संभव उच्छिस्थ को तकरीबन पार करते हुए
किसी तरह संग्रहालय में दाखिल हो सके |संग्रहालय के अधिकारी कर्मचारी
भीड़ की मनमानी के आगे विवश दिख रहे थे|
दोपहर बीत चुकी थी और हमलोग
मध्याह्न भोजन के लिए किसी उपयुक्त स्थान की तलाश कर रहे थे
तभी एक पान की दूकान पर खड़े एक सज्जन ने पुरे मुह में पान भरे
किसी तरह पान की पीक को अधर से चुने न देने की चेष्टा में
मुह को क्षैतिज से थोडा ऊपर न्यून कोड़ बनाते हुए किसी ढाबे का
नाम बताया | आवाज़ श्रवणीय रूप में बमुश्किल हमलोगों तक
पहुंची थी और उतनी ही बमुश्किल हमलोग पीक की उछलन
की गिरफ्त के दायरे में आने से बचे थे| पानभक्षी सज्जन द्वारा
सुझाये गए ढाबे का भोजन तो वास्तव में अच्छा था पर वहां का
वातावरण इतना गरम ,उमस से भरा था कि तकरीबन घुटन
सी हो रही थी , खाना खाकर हमलोग पुनः पश्चिम समूह परिसर
में दाखिल हुए और घास पर बैठ थोड़ी देर आराम करने का मन
बनाया | इस बीच मेरे मित्र और सहचर अभिनव, जोकि शायद
पत्थर के मिथुन और युगल देखते देखते किंचित क्षुब्ध दिख रहे
थे, ने कुछ विदेशी मानव युगलों को अपने कैमरे का शिकार
बनाया|
इस बीच भयंकर उमस के बाद अचानक पूरब से ठंडी हवा चलने लगी
और देखते ही देखते काले भूरे बादलों ने सूरज के गुस्से को ठंडा कर
दिया ,काफी तेज बारिश होने लगी| हमलोग वर्षा की बौछार से बचने
के उद्देश्य से आनन् फानन में कोई आश्रय खोजने लगे, अंततोगत्वा
अपने जूतों को किसी पौधे के नीचे छुपाकर ( मंदिर में जूता लेजाना
संभव नहीं था) हमलोग वराह मंदिर में जा छुपे |मंदिर चारों ओर से
खुला होने के कारण थोड़ी ही देर में वर्षा की बौछार से हमलोगों
की रक्षा करने में अपनी असमर्थता की स्वीकारोक्ति सी करने लगा,
काफी हद तक हमलोग भीग चुके थे,बाद में बारिश रुकने के बाद
हमलोगों ने पाया कि हमारे जूते भी भीगने कि वजह से अब पहनने
लायक नहीं रह गए थे पर हमलोगों के पास कोई दूसरा चारा नहीं
था अतः हमलोगों ने उन्हें पुनः उसी हाल में अंगीकार किया|
अब शाम होने को थी और हमलोगों को बाज़ार में
चाय पीते पीते यह महत्वपूर्ण सूचना दी गयी कि यहाँ से रेलवे
स्टेशन जाने के लिए थोड़ी ही देर में आखिरी वाहन जाने वाला है|
यह सुनते ही , यद्यपि कि हमलोगों कि वापसी ट्रेन रात को १० बजे
थी ,हमलोग वापस खजुराहो रेलवे स्टेशन जाने को उद्यत हो उठे|
रेलवे प्लेटफोर्म पर २-३ घंटे बिताने के बाद हम लोगों कि ट्रेन आयी
या यों कहें कि ट्रेन का इंजन आया क्योंकि ट्रेन तो हमलोगों को
खजुराहो पंहुचा कर सुबह से वही दुसरे वाले प्लेटफोर्म पर खड़ी थी
बगैर इंजन के, इंजन महोबा से आना था और और वो आया और
हमलोगों को ट्रेन के साथ अगली सुबह ८ बजे इलाहबाद पहुँचाया|
अलविदा खजुराहो
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