खजुराहो :कला,अध्यात्म और इतिहास(१)
कंदरिया महादेव मंदिर, खजुराहो जुलाई महीने में खजुराहो जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ , इस अकस्मात् यात्रा
के प्रयोजन में मेरे मित्र अभिनव की भी महती भूमिका थी, अन्यथा जुलाई के इसपसीजते ग्रीष्म आतंक के महीने में मध्य भारत के पठारी क्षेत्र में घुसने का साहस
मैं अकेले कतई नहीं जुटा पाता | वैसे मैं खजुराहो के विषय में अपने मित्र और बाल-
सखा सुदेश के जरिये बचपन में ही काफी कुछ जान चूका था , पर वह सब इस
बहुआयामी विराट ऐतिहासिक धरोहर के बारे में एक अपरिपक्व किशोर मन
की टिप्पणियां थीं ,जो सिर्फ इस के प्रकट रूप से अभिभूत थीं, मेरा मानना है
की खजुराहो जितना कुछ आपको दिखाता है उससे कई गुना ज्यादा अपने रहस्यमय
चेहरे के पीछे छुपाये रखने का बोध कराता है| इस सन्दर्भ में बाद में इतिहास और साहित्य
में किये गए अध्ययन ने खजुराहो के विषय में काफी तथ्यात्मक जालों को साफ़ करने में
मदद की, यहाँ विशेष रूप से शिवप्रसाद सिंह की 'नीला चाँद' का उल्लेख करना
चाहूँगा जो अपने संस्कृतनिष्ठ हिंदी और प्रांजल शब्दावली के बावजूद काशी के
अतिरिक्त खजुराहो , महोबा एवं कालिंजर के बारे में एक जबरदस्त उत्सुकता
पाठक के मन में जगाती है, यह किताब करीब आज से १० साल पहले कहीं पढ़ी
थी| बताते चलें की शिवप्रसाद जी की इस पुस्तक को साहित्य अकादमी ,व्यास
सम्मान इत्यादि कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाज़ा गया था| वैसे मूलतः शिवप्रसादजी
की रूचि काशी में थी और उनकी लिखित ३ पुस्तकें ' नीला चाँद', 'गली आगे मुड़ती है'
तथा 'शैलूष' को ' काशी त्रयी' के नाम से जाना जाता है| बहरहाल हमारी रूचि खजुराहो
में थी और यह रूचि मेरे मित्र अभिनव के पूना से स्थानांतरित होकर इलाहबाद आजाने
के चलते इस मजेदार यात्रा में परिवर्तित हो गयी| अभी हाल ही में २००८ में जब लालू
प्रसाद रेल मंत्री हुआ करते थे तब खजुराहो को भारत के रेलवे मानचित्र पर प्रतिष्ठा
मिली थी अर्थात खजुराहो रेलवे स्टेशन का उद्घाटन हुआ था इस चीज ने हमारी यात्रा
को और सुगम बना दिया था | हमने बनारस से खजुराहो जाने वाली खजुराहो बुंदेलखंड
लिंक एक्सप्रेस को इलाहबाद में रात को १० बजे पकड़ा जो अगले दिन सुबह ७ बजे महोबा
के रास्ते खजुराहो पहुंचती है| हम लोगो का आरक्षण वातानुकूलित शयन यान ३ टियर
के डब्बे में था जिसमे हम लोग केवल दो भारतीय यात्री थे ( एक विशालकाय शिक्षित
पर्यटन उन्मुख मध्य वर्ग होने के बावजूद हम भारतीयों द्वारा अपने ऐतिहासिक धरोहरों
के प्रति अपनाई गयी उदासीनता चकित करती है) यहाँ तक की ट्रेन का कर्मचारी वृन्द
( टी टी और अटेंडेंट ) भी हम दो भारतीयों को चकित होकर इस दृष्टि से घूर रहा था
मानो यह सन्देश दे रहा हो कि इस देश में तमाम तीर्थ , बाबाओं के आश्रम होंते हुए
खजुराहो जैसी 'अश्लील' जगह जाने कि सनक कैसे आपको सवार हो गयी? बहरहाल
हम दो प्राणी इन सारी सद्भावपूर्ण दृष्टियों के पीछे छुपे 'नैतिक' उपदेशों एवं सुभाषित
को खारिज करते हुए खजुराहो पहुँच गए, सुबह सुबह ट्रेन से उतरने के बाद हमलोग
एक भारतीय रेलवे स्टेशन की बेदाग़ स्वछता को देखकर कुछ वैसे ही चकित थे जैसे
रात को ट्रेन में हम लोगों को देखकर टी टी | छोटा सा साफ़ सुथरा स्टेशन और
अपेक्षाकृत
कम भीड़ भाड़ के चलते जैसे यात्रा की सारी थकान काफूर सी हो गयी | हमलोगों ने स्टेशन
मास्टर से स्नान घर की चाबी ली और शौच स्नानादि से निवृत्त होकर स्टेशन से बाहर निकले|
बाहर टेम्पो चालकों के रूप में भोले भले पर्यटकों को लूट लेने की हिन्दुस्तानी प्रतिभा प्रचुर मात्रा
में फैली हुयी थी, इस प्रतिभा का उत्कर्ष तो तब वास्तव में अपने पूर्ण पुष्पित पल्लवित रूप में
प्रकट हुआ जब दो टेम्पो चालक हमें अपने अपने टेम्पो में बिठाने की प्रतिष्पर्धा में आपस में
शारीरिक द्वंद पर उतर आए पर चूंकि हमलोगों की रूचि पर्यटन में थी न की कुश्ती के मैच में
अतः हम लोग अपना अपना पार्श्व वाहक ( बैकपैक) लेकर पैदल ही मुख्य सड़क की ओर
चल पड़े| |
खजुराहो रेलवे स्टेशन से करीब २०० मीटर चलने पर हम खजुराहो को जिला मुख्यालय
छतरपुर से जोड़ने वाली मुख्य राजमार्ग पर आ चुके थे, सड़क पर गाड़ियों के आने जाने
की आवृत्ति काफी विरल थी, अगल बगल दूर दूर तक कोई घर, दूकान या इंसान नज़र
नहीं आ रहे थे और हम काफी कीमती कैमरा , मोबाइल ,घडी इत्यादि से लैस थे , इन
सब मिले जुले कारणों के चलते हम किसी अज्ञात आशंका से भी घिरने लगे थे की तभी
शारीरिक द्वन्द करने वाले दो टेम्पो चालकों में से एक , जो अपेक्षाकृत ज्यादा आक्रामक
दीखता था, अचानक हम लोगों के पीछे अपना टेम्पो घुर्घुराता हुआ अवतरित हुआ ,तब
तक चढ़ती हुयी धुप और बढ़ती हुयी भूख ने हम लोगों के भी मोल भाव करने की धार
को भोथरा कर दिया था अतः ३०० रुपये में खजुराहो और आस पास घुमाने का सौदा
अंततोगत्वा पक्का हुआ|
(क्रमशः)
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