Thursday, April 12, 2012

एक  कविता का बयान -  गुंटर ग्रास


मैं क्यूँ रहूँ मौन , छिपाए इतनी देर तक
जो जाहिर है  और होता आया है
युद्धों में , जिनके पश्चात हम बच गए लोग
होते हैं ,बमुश्किल , हाशिए के लेख
यह  पहले वार करने का 'कथित' अधिकार है ,
जो कर सकता है विध्वंस
एक बडबोले द्वारा दमित
और सामूहिक तालियाँ पीटने को उकसाए गए
इरानी आम जन का ,
क्यूंकि 'उनकी' सत्ता की दृष्टि में
संदेह है ,जारी निर्माण का ,एक नाभिकीय बम के
फिर भी , मैं अपने को क्यूँ रोकूँ
नाम लेने से , उस देश का
जहाँ, वर्षों से, गुप-चुप
उफान पर है एटमी संभावना
बगैर रोकटोक,किसी भी नियंत्रण की चंगुल के परे ,
इन तथ्यों की सार्वभौमिक पर्दादारी ,
जिनके नीचे दबा था मेरा मौन ,
एहसास होता है मुझे अब ,एक आपराधिक झूठ का ,
दबंगई का -  दंड मिलना तय है
ज्यों ही इससे दृष्टि हटी ,
'एंटी-सेमीटीज्म्' का निर्णय जाना-सुना है

अब, चूँकि मेरे देश ,
जिसने  समय समय पर ढूंढा -जूझा है
अपने स्वयं के अपराधों से ,
अतुलनीय तरीके से ,
यदि वह सिर्फ मुनाफे की खातिर ,
शातिर जबान से प्रायश्चित के नाम पर
करता है वादा एक और यू-नौका ,इजरायल को
जो दक्ष है तमाम विनाशक जखीरे को दिशा देने में ,उस ओर
जहाँ एक भी एटम बम होना प्रमाणित नहीं
पर डरता है ,निर्णायक सबूतों की मांग से

मैं वह कहता हूँ ,जो कहा जाना चाहिए
पर क्यूँ रहा अब तक चुप ?
क्यूंकि मेरी जड़ें ,जो दूषित हैं उस अमिट कलंक से ,
नकारती रहीं इस तथ्य को ,घोषित सत्य के तौर पर
इजरायली राष्ट्र से कहने को ,
जिससे मैं जुड़ा हूँ ,और जुड़ा रहना चाहता हूँ ,
इसे मैं अब क्यों  कहना चाहता हूँ
आयु-जर्जर , लगभग अंतिम कृति में
कि पहले से ही दुर्बल विश्व-शांति के लिए
नाभिकीय शक्ति इजरायल एक खतरा है ?
क्यूंकि यह कहा जाना चाहिए
इस कहने को ,एक अगले दिन पर भी टालना ,बहुत विलम्ब हो सकता है ,
इसलिए और ,कि हम ,पहले से ही पर्याप्त शापित जर्मन
हो सकते हैं सहभागी एक और संभावित अपराध में ,
जिसकी किसी चलताऊ बहाने से नहीं हो सकता प्रायश्चित ,
और यह तय है कि अब मैं चुप नहीं रहूँगा
क्यूंकि पक चूका हूँ पश्चिम के ढोंग से ,
साथ ही यह भी उम्मीद की जानी चाहिए
कि यह तोडेगा कुछ औरों की भी चुप्पी ,
एक अपील :दृश्य खतरा उत्पन्न करने वालों से
हिंसा के परित्याग का ,
एक समान आग्रह का ,
एक निर्बाध व स्थाई नियंत्रण की ,
इजरायल की नाभिकीय क्षमताओं की ,
और इरानी नाभिकीय क्षमताओं की भी
किसी अंतर-राष्ट्रीय अभिकरण के हाथों ,
दोनों सरकारों के हाथों ,
सिर्फ इसी रास्ते ,हम इजरायली और फिलीस्तीनी
यहाँ तक कि इस उन्माद-ग्रस्त क्षेत्र के सभी लोग,
रह सकते हैं साथ-साथ , परस्पर ,शत्रुओं के मध्य
यही हमारी सहायता भी ..














Friday, March 16, 2012


                     आत्म - आख्यान 


           मैं  कौन हूँ ??????
           अब तक  नहीं जाना?
           मैं केन्द्र हूँ ,  हूँ मैं ही परिधि भी
           मैं ही कारण     मैं ही कारज
           मैं  सर्वव्यापी पर हूँ अदृश्य


           मेरे ही  इर्द-गिर्द घुमती है धुरी
           राजनीति की ,   समाज की
           मेरा ही मन्त्र-जाप करते होती है पूरी
           तीर्थ यात्रा एक खद्दरधारी की संसद तक
           मैं ही ,
           घोषित लक्ष्य हूँ
           तमाम कल्याणकारी आदर्शों का
           पात्र हूँ सरकारी भिक्षा -दानों का
           केन्द्र में हूँ सरकारी नैतिक वांग्मय के

         
           मेरे ही उद्धारार्थ  अनवरत है
           अंतहीन ,
           बहसें-मुबाहिसे ,      आरोप-प्रत्यारोप
           वाद-विवाद ,        जूतम-पैजार
           देश की संसद के बड़े से हाल में
           जहाँ मेरा प्रवेश भी है ,लगभग असंभव


           मैं अशरीरी हूँ ,   प्रेत हूँ
           हाड़-मांस के चोले में घुसते ही
           कर दिया जाता हूँ फिट
           आश्चर्यजनक कुशलता से
           'सवर्ण-दलित'    'अगडे-पिछड़े'
           'हिंदू-मुस्लिम'   'लाल-हरे'
           के तमाम उपलब्ध रेडीमेड खांचों में से किसी एक में


           विवश हूँ ,   पर कायर नहीं हूँ मैं
           समस्त सत्ता का पूंजीभूत केन्द्र हूँ मैं
            संविधान की प्रस्तावना का मुख्य किरदार हूँ मैं
           कार्टूनिस्टों की पेन्सिल की उकेर हूँ मैं
           .........................................................
           .........................................................
           अजी इस महान राष्ट्र का  'आम-आदमी' हूँ मैं .....


Wednesday, September 14, 2011

" समय का सत्य "

            बीत रहा है जीवन
            और मिट रहे हैं मिथक
            समय के सत्य पर घिसते घिसते
            उठ रहे है प्रश्न मन में
            क्या बीते हुए वर्षों की गिनती का ही नाम जीवन है ?
            परिभाषित करते हैं लोग
            इसे अपने अपने जुमलों में
            पर मेरी अज्ञानता आड़े आती है
            जीवन की तमाम उपलब्ध व्याख्याओं को
            अंगीकार करने में
            कभी कभी लगता है संवेदनशून्य हो चला हूँ
            शायद सच में
            पर काश!
            इस सत्य को स्वीकारता
            सच तो है
            घटनाओं की मार ने
            भोंथरा दी है संवेदना की धार
            भयाव्रित्त है मन
            कहीं फिर न हो यह अनर्थ
            फिर न हो परीक्षा किसी सत्य की
            बहत पुस्तकें चाट डाली हैं
            सत् निकाल दिया है शास्त्रों का
            पर फिर भी मंडराती है छाया
            एक निरक्षरता की
            आखिर निरक्षरता भी
            एक प्रकार की वंचना है
            इस अशिक्षित शिक्षा ने
            इस निरक्षर साक्षरता ने
            इन अ-संस्कृत संसकारों ने
            नाम दिया है २४ वर्षों को
            जीवन.....................  
               

Monday, February 28, 2011

                      
                                     पुस्तकस्थातुयाविद्या(१): जिम कॉर्बेट


                     
                          संस्कृत का एक श्लोक जो कभी प्रारंभिक कक्षाओं की पाठ्यचर्या का हिस्सा 
                          था ,
                         'पुस्तकस्थातुयाविद्या परहस्तगते धनम,कार्यकाले समुत्पन्ने न सा विद्या 
                         न तद्धनम ' अर्थात किताब में रखा ज्ञान किसी दुसरे के हाथ में गए धन के सद्द्रिश्य 
                         है वक़्त पड़ने पर न वो धन काम आता है न वह विद्या | वास्तव में पुस्तकों में
                         तो विश्व का तमाम संचित ज्ञान कोष पड़ा ही हुआ है परन्तु वह अपने हाथ में
                         तभी आता है जब हम कभी उनका अवलोकन करें | 
                                                                इसी विचार ने मुझे "पुस्तकस्थातुयाविद्या" शीर्षक 
                        से ब्लोग्पोस्ट की एक श्रंखला आरम्भ करने की प्रेरणा दी जिसमे मै अपने अब 
                        तक के जीवन में आई उन पुस्तकों का ज़िक्र करूँगा जिन्होंने मेरे स्व ,मेरे सोचने
                        के ढंग ,मेरी जीवनदृष्टि, संक्षेप में मेरे समस्त व्यक्तित्व पर अपनी अमिट छाप 
                        छोड़ी है | इन कुछ महत्वपूर्ण किताबों ने न केवल मेरे ज्ञान को समृद्धतर किया 
                        बल्कि मुझे इस प्रकार कि अंतर्दृष्टि विक्सित करने में मदद की जिससे मेरे 
                       परिवेश ,मेरे इर्द गिर्द की अब तक अदृश्य असंख्य चीजें मेरे दृष्टि की व्याप्ति 
                       की सीमा के अन्दर आ गिरीं | हर पढ़े लिखे व्यक्ति का किताबों के सबंध में ऐसा 
                       ही तजुर्बा होगा ऐसा मेरा अनुमान है, आखिर गाँधी ने भी अपने अहिंसा ,सत्याग्रह 
                       इत्यादि तमाम नैतिक  औजारों का मूल तोल्स्तोय , रस्किन ,थोरियो की किताबों 
                       में ही कहीं होना बताया था | बहरहाल यह जरूरी नहीं की धर्म ,दर्शन ,इतिहास या 
                       राजनीति जैसे किसी गंभीर विषय की ही किताब किसी व्यक्ति के जीवन पर असर
                       डाले ,कभी कभी यह काम कोई मनोरंजक साहित्य अथवा किसी हलके फुल्के 
                       विषय पर लिखी किताब भी बेहतर ढंग से कर सकती है ,मिसाल के तौर पर जब 
                       हम लोगों की पीढ़ी  बचपन से किशोरावस्था की ओर बढ़ रही थी तो 'अमर चित्र कथा'
                       के इतिहास के तमाम पात्रों पर आधारित कामिक्स श्रृंखला ने जितना असर डाला 
                       था उतना शायद ही कोई दूसरा बाल साहित्य कर पाया हो ,मुझे अब तक याद है
                       मार्च में परीक्षा समाप्त हो जाने के बाद अप्रैल मई की गर्मी की छुट्टियों की लू भरी 
                       दोपहरी में जब घर के तकरीबन सारे बालिग़ लोग सो रहे होते थे तो हम ( मैं और 
                       सुदेश) 'गोरा बादल' या 'चित्तौड़ की रानी' पढने में मशगूल होते थे |
                                                       खैर वो किस्सा किसी और पोस्ट में बयां होगा ,फिलवक्त मैं 
                       'पुस्तकस्थातुयाविद्या' श्रृंखला का प्रारंभ  एक ऐसी किताब के ज़िक्र से कर रहा
                        हूँ जिसे मैंने अभी हाल ही में पढ़ा और पढ़ कर खासा अफ़सोस किया कि इस किताब 
                        को मैंने बचपन में क्यों नहीं पढ़ा? निश्चय ही यदि मैंने इसे तब पढ़ा होता तो मेरे
                        बहुरंगी बचपन के चित्र में कुछ और रंग, जीव जंतु ,जंगल ,नदी पहाड़ और कुछ और
                        कुतूहल भरे खेल शामिल हो गए होते , मेरा संकेत महान शिकारी,संरक्षणवादी,
                        साहित्यकार और पर्यावरण प्रेमी जिम कॉर्बेट की लिखी ३ पुस्तकों (maneaters of kumaon,
                        the temple tiger,the man eater leopard of rudraprayag) की ओर है जिन्हें oxford university
                        press ने एक ही जिल्द में "omnibus" नाम से प्रकाशित किया है | 
                                                                            किताब में १९२० से १९४० के बीच कुमाऊँ के पहाड़ी 
                       क्षेत्र में आतंक का पर्याय बने कुछ  नरभक्षी बाघ ,बाघिन तेंदुओं का ज़िक्र है जिनके शिकार 
                       के लिए क्षेत्र की जनता और तत्कालीन  यूनाईटेड प्रोविंस सरकार के अनुरोध पर जिम 
                       कॉर्बेट को बार बार तकरीबन प्रत्येक वर्ष उन जंगलों में जाना पड़ा |अब तक के वर्णन से 
                      अगर आप इस किताब को महज एक ' शिकार कथा 'समझ  बैठे हैं तो आप भयंकर गफलत 
                      में है | दर असल शिकार के बहाने कॉर्बेट साहेब ( जैसा कुमाऊनी लोग लेखक को बुलाते थे)
                      ने जंगल के उस जगत की बेजोड़ तस्वीर पेश की है जिसे प्रकृति से काफी दूरी बना 
                      लेने वाली मनुष्यजाति की ही तरह उसी विधाता ने ही सृजित किया था और वहां 
                      अब भी प्रकृति के अनुशासन मान्य हैं जबकि मानव जाति ने प्रकृति से विलगाव को 
                       ही अपनी सभ्यता का मापदंड बना रखा है | 
                                                                                       कॉर्बेट ने शिकार को एक खेल न बताकर 
                      इसे  लोक कल्याणकारी तथा पर्यावरण जागरूकता से जोड़कर देखने की कोशिश की 
                      है ,वह शिकार के लिए केवल उन्हीं परिस्थितियों में सहमत होते हैं जब बाघ नरभक्षी 
                      हो चुका हो तथा उसके जीवित रहने से आस पास के ग्रामीणों एवं उनके मवेशियों को 
                      स्पष्ट खतरा हो |कई बार सरकार उनसे व्यापक जनहित में शिकार का निवेदन करती 
                      है तो कई बार स्वयं कुमाऊँ के लोग उनसे अपनी और अपने मवेशियों के रक्षार्थ 
                       गुहार लगाते हैं|एक स्थान पर तो पुस्तक में उस पत्र को ज्यों का त्यों दिया गया है 
                        जो कॉर्बेट को संबोधित कर गढ़वाल जनपद के ३ गाँव के निवासियों द्वारा लिखा 
                        गया है ,पत्र के निचे ४० हस्ताक्षर तथा ४ अंगूठा निशान मौजूद हैं |
                                                                               शिकार की रोमांचक और जोखिमपूर्ण कथा
                      को कहते चलने के साथ साथ कॉर्बेट कुछ गज़ब की दिलचस्प जानकारियां देते चलते
                      हैं ,वह यह धारणा बना कर चलते हैं कि पाठक नगरीय जीवन का अभ्यस्त है और
                      उसे जंगल के विधान के विषय में यह ज्ञान देते चलना आवश्यक है | उदाहरण के 
                      तौर पर वह लिखते हैं कि किसी बाघ के पाँव के जमीन पर पड़े निशान को देखकर
                      यह बताया जा सकता है कि उस बाघ कि उम्र क्या होगी?,वह नर  है या मादा  ?,
                      उस स्थान से गुजरते हुए उस कि रफ़्तार क्या रही होगी?, और सबसे महत्वपूर्ण
                       कि क्या वह नरभक्षी है ? तथा यदि वह मादा है तो क्या उसके पेट में बच्चा है?
                       किसी प्राणी के मात्र पद चिन्ह का परीक्षण कर इतनी सूचनाएं एकत्र की जा सकती
                       हैं यह तथ्य अपने आप में दिलचस्प है | इसी प्रकार एक स्थान पर कॉर्बेट लिखते 
                        हैं "it is generally believed that tigers kill by delivering a smashing blow on the neck,
                         this is incorrect .tigers kill with their teeth." एक अन्य स्थान पर ..."the mating
                        season for tigers is an elastic one extending from November to April."..'.Tigers
                        never kill in excess of their requirements'....when a tiger hides his kill it is usually
                         an indication that he does not intend lying up near it,but it is not safe to assume
                         this always.'...
                                                  इसी प्रकार की तमाम दिलचस्प जानकारियां जिन्हें जानने का 
                          आज के नगरीय जीवन वाले आधुनिक शिक्षित व्यक्ति केलिए शायद ही अन्यत्र
                          कोई स्रोत मौजूद हो |पुरे वर्णन में जंगल उसके पशु पक्षी नदी पहाड़ और विशेष 
                         रूप से बाघ ( जिसके संरक्षण के नाम पर आज कल काफी शोर गुल मचाया जा
                          रहा है तथा तमाम संस्थाएं अरबों के खेल में लिप्त हैं) के जीवन ,उनके मौलिक
                          अधिकार तथा पृथ्वी पर उनके पर्यावास पर कमाल की सजग चैतन्यता तथा
                           सहानुभूति की अंतर्धारा स्पष्ट रूप से महशुश की जा सकती है | कॉर्बेट यहाँ
                            तक कहते हैं कि घनघोर जंगल में भी कभी वह अपने साथ ३ से ज्यादा 
                             कारतूस ले कर नहीं चलते  , बल्कि बाद में तो वह घने जंगलों में बन्दूक 
                             के स्थान पर कैमरा लेकर जाना पसंद करते हैं| शिकार की तमाम रक्त-
                            रंजित घटनाओं के बावजूद कहीं भी पाठक के मन मस्तिष्क पर हिंस्र भाव,
                            क्रूरता ,बर्बरता या किसी विशेष जंगली प्राणी से घृणा  जैसे भाव नहीं उपजता 
                            यह लेखक के सजग पर्यावरणीय लेखन की सफलता मानी जानी चाहिए|
                            
                                               एक स्थान पर बाघ को अपने शिकार को विस्थापित करने 
                            के तरीके के बारे में कॉर्बेट लिखते हैं " the word 'drag', when it is used to 
                            describe the mark left on the ground by a tiger when it is moving it's kill
                             from one place to another, is misleading,for a tiger when taking it's kill 
                             any distance( i have seen a tiger carry a full grown cow for four miles)
                             does not drag it, it carries it, and if the kill is too heavy to be carried,it
                             is left " ऐसी एक से बढ़कर एक हैरानकुन जानकारियां जिसके स्रोत
                             सिर्फ कॉर्बेट ही हो सकते हैं | इस सब के पीछे उनका नैनीताल के आस पास
                             के जंगलों में पशु पक्षियों के करीबी साहचर्य में गुजरा बचपन है तो 
                             उनकी व्यक्तिगत जीवन की सादगी भी है जिसके चलते १९३० में (अनुमान
                             किया जा सकता है की उस समय कितनी कारें भारत में होंगी और
                              उनसे चल पाना किस वर्ग के बूते की बात होगी ) वह कार से बरेली 
                              से रामनगर जाते हैं और फिर वहां से करीब ३० किलोमीटर घने 
                              जंगलों में पैदल और वो भी अकेले ,साथ है तो सिर्फ एक बन्दूक 
                              का और ३ कारतूस ,रात घने जंगल में किसी पेड़ की डाल पर 
                              कटती है, रातमें  बारिश होती है ,कपडे भीग जाते हैं और फिर 
                              सुबह किसी जंगली झरने पर स्नान एवं प्राकृतिक हवा से तैलिये का 
                              काम लिया जाता है |वास्तव  में इस किताब को पढने के पहले 
                              मै जिम कॉर्बेट का नाम आते ही एक मशहूर शिकारी के बारे में
                              सोचता था परन्तु इसे पढने के बाद मुझे लगा कि जिम कॉर्बेट 
                              आज के निरंतर क्षरणशील पर्यावरण तथा अति उपभोक्तावादी 
                              सुविधाभोगी आत्मकेंद्रित दिखावे की भौंडी संस्कृति वाले समाज 
                              में जिम कॉर्बेट के विचार ,व्यक्तित्व व समग्र लेखन पहले से 
                              कहीं अधिक प्रासंगिक हो उठे हैं ,आवश्यकता है समाज को कॉर्बेट
                              को नए सिरे एवं नए नजरिये से पुनर अध्ययन की .......तो चलें
                              कुमाऊँ की सैर पर .....जानवरों ,चिड़ियों ,घूरल ,हिरन और तमाम
                               रंग और गंध के पेड़ों की जादुई दुनिया से दो चार होने .....बरास्ते
                              ..........जिम कॉर्बेट 
                            


Thursday, February 10, 2011

              
                                        कविता का  नया हस्ताक्षर: रामजी 
               कविता के आकाश पर एक नए नक्षत्र का उदय हुआ | साहित्यिक मासिक 'पाखी'
                      के  दिसंबर'१० अंक में युवा नवोदित कवि रामजी तिवारी की ३ कवितायेँ छपीं |
                      रामजी तिवारी मेरे पुराने मित्र  एवं कार्यालय के सहकर्मी  रहे हैं इसके अतिरिक्त
                      उनकी जड़ें  भी मेरे मूल अंचल में ही अवस्थित हैं | इन सब मिले जुले कारणों से
                      उनकी  रचना एक प्रतिष्ठित साहित्य मासिक में प्रकाशित होने की सूचना
                      मिलने पर एक अनिर्वचनीय आनंद एवं रोमांच की अनुभूति हुई| आखिर 'अपने
                      बीच' के किसी को साहित्य जगत में 'स्वीकृति' मिली| पहचान का गौरव 
                      सर्वश्रेष्ठ  गौरव है| रामजी की कविता छपने से भले ही साहित्य की दुनिया 
                      में उनका औपचारिक प्रवेश हुआ हो पर जहाँ तक अपने 'मित्र-वृत्त' का प्रश्न
                      है वह सदैव एक अनिवार्य व सार्थक उपस्थिति रहे हैं| पिछले कुछ वर्षों से 
                      भले ही भौतिक दूरियां रहीं हों परन्तु रामजी  समय समय पर विभिन्न
                      समीचीन प्रसंगों पर अपनी समालोचनात्मक  प्रतिक्रियाओं  व विचारपूर्ण 
                      टिप्पड़ियों  से मेरी चिंतनधारा में सार्थक हस्तक्षेप निरंतर करते रहे हैं|
                      हम लोग अपने कुछ और मित्रों के साथ मिलकर साहित्य ,राजनीति,कला
                      दर्शन,विज्ञानं ,धर्म ,संस्कृति एवं विभिन्न सामयिक महत्व के विषयों 
                      पर खुली ,अंतहीन व यदा कदा आक्रामक बहसें भी करते रहे हैं| अब अपने 
                      'गिरोह' के किसी 'अड्डेबाज' का छपे हुए पन्ने पर 'मौजूदगी' देखकर
                       एक  पुरसुकून  इतमिनान होता है |
                                                                       'पाखी' के इस अंक में रामजी की कुल
                       ३ कवितायेँ 'मुखौटे', 'भ्रम' तथा 'सिंहासन और कूड़ेदान' शीर्षक से 
                      प्रकाशित हुई हैं ,इनमें पहली २ वैयक्तिक  व मनोवैज्ञानिक किस्म
                      की कवितायेँ हैं जबकि अंतिम 'सिंहासन और कूड़ेदान' मनुष्य की
                      सोंच और व्यवहार पर विश्वव्यापीकरण व बाजारवाद के निर्मम 
                       प्रहार के प्रभाव को रेखांकित करती है| 'सिंहासन और कूड़ेदान'
                       शीर्षक पढ़ते ही मेरे मन में फ़्रांस के लुई १६वे से लेकर नारायण
                      दत्त तिवारी तक के अनेक 'नायकों' की स्मृतियाँ घूम गईं जो 
                      कभी 'सिंहासन' पर विराजमान थे परन्तु उनके करियर की गोधूलि
                      में इतिहास ने उनके लिए 'कूड़ेदान' की नियति चुन रखी थी| वैसे 
                      इस कविता में रामजी ने क्रिकेट खिलाडियों की विज्ञापनों के जरिये
                      अंधाधुंध निर्लज्ज कमाई व व्यापक समाज पर पडनेवाले तद्जनित 
                      प्रभाव की ओर से लगभग 'आपराधिक' उदासीनता को रूपक बनाकर
                      एक व्यापक मर्ज़ की तरफ इशारा करने की कोशिश की है| कविता में 
                      १९९१ के बाद आई आर्थिक राजनीतिक नीतियों में परिवर्तन और
                      समाज पर पडनेवाले उनके व्यापक प्रभाव का जायजा लेने की कोशिश 
                     की गयी है और आज के नव-उदार'(neo-liberal) युग में होने 'स्याह-
                     सफ़ेद' बंटवारे(black and white classification with total absence of grey)
                     के बर अक्स इस रचनाकार को आसानी से 'वामपंथी' या कम से कम
                     माओवाद से सहानुभूति रखने के 'कलंक' से अभिषिक्त किया जा सकता
                     है| दर असल यही हमारे समय की विडम्बना है जब या तो आप हमारे 
                     सहयोगी (strategic partner or ally ) हैं अन्यथा हमारे शत्रु(enemy)|
                    नीतिगत मतभेद या बीच के विचार का कोई 'स्पेस' मौजूद ही नहीं है| 
                    या तो आप सत्ता के सहयोगी हैं या फिर 'माओवादी' बीच की कोई
                    जगह ही नहीं | 
                                             रामजी ने नव उदार अर्थ तंत्र तथा सर्वत्र व्यापी(omnipresent)
                    सर्वसक्षम(omniscient) बाजार के शासन एवं समाज पर कसते शिकंजे को 
                    बखूबी पकड़ा है ,वह एक जगह लिखते हैं 
                                         'मैदान  के भीतर  का खेल 
                                          उस बाहर के खेल की
                                           छाया है 
                                          जिसे समझने के लिए 
                                          सिर्फ क्रिकेट विशेषग्य होना 
                                          पर्याप्त नहीं'
                     वास्तव में इस कविता को पढना 'frontline' 'the hindu' या 'down to earth'
                    के किसी रिपोर्ट पढने जैसा ही है |
                                     कविता का शिल्प व बिम्ब पूरी तरह उत्तर आधुनिक फॉर्मेट 
                    में फिट बैठता है ,पूरी कविता बोर होने के जोखिम के बगैर आप एक बार
                    पढ़ सकते हैं ,संतुष्टि  की आश्वस्ति है' पूरी कविता नेट पर पढने के लिए
                   www.pakhi.in   पर जा सकते हैं                                         


                                        

Sunday, February 6, 2011


                                  वंशवृक्ष : पारिवारिक इतिहास का डिजिटल अर्काईव

                               हमें इतिहास में स्कूल से कालेज तक तमाम राजवंशों की वंशावली कंठस्थ
                               करवाई जाती है, भारत के इतिहास में हर्यंक वंश, मौर्या वंश,गुप्त,हर्ष,गुलाम,
                              खल्जी ,पल्लव,चोल,चेर,पंडय ,राष्ट्रकूट,चालुक्य,तुग़लक ,लोदी,मुग़ल  ...
                              वैसे ही विश्व इतिहास में फ्रांस के बोर्बों ,ऑस्ट्रिया हंगेरियन साम्राज्य के हैप्स्बर्ग
                              जर्मनी के होहेंजोलार्न,इंग्लैंड के तुडोर व स्टुअर्ट और न जाने कितने असंख्य
                              रजवाड़ों की वंशावलियां इतिहास के विद्यार्थी के लिए आतंक का सबब बनी
                              रही हैं |२० वीं सदी में लोकतान्त्रिक राज्यों के जोर पकड़ने के चलते इतिहास
                              की स्कूली पाठ्यचर्या में भी बदलाव परिलक्षित हुए ,अब इतिहास विषय में
                              राजाओं और युद्धों संधियों के इतिहास के स्थान पर आम जन के इतिवृत्त
                              पर ज्यादा जोर दिया जाने लगा ,अच्छी बात है अगर हम अकबर और जहाँगीर
                              के हरम में कितनी बेगमें थीं और उन्होंने अपनी जमीन बढ़ाने के लिए कितने
                             युद्ध लड़े , इसके बजाय हमें यह सूचना मिले कि उस वक्त आम आदमी का जीवन
                             कैसा था तथा उसके चिंताओं के विषय क्या थे ?
                                                                                 आम जन के इतिहास पर याद आया कि
                             आम जन तो हम भी हैं  और जाहिर है हमारे बाप दादा भी आम जन रहे होंगें
                              हमें अपने कुनबे के माज़ी के मुत्तालिक कितना इल्म है? सवाल परेशान करने
                              वाला है , आखिर आजकल किसी भी आम आदमी से पूछिये कि वह अपनी
                              पिछली पीढ़ी कितने नामों को जानता है तो जवाब आयेगा ज्यादा से ज्यादा
                              ४ या बमुश्किल ५ पीढियां ,कितने लोग होंगे जो अपने दादाजी के परदादा
                              के नाम से वाकिफ हैं? और किसी की तो नहीं जानता पर जहाँ तक स्वयं
                              की बात है ,यह प्रश्न किशोरावस्था से ही मुझे कुछ खोजने ,अन्वेषण करने
                              या यों कहें की अपने परिवार के पुरातत्व में कुछ उत्खनन की प्रेरणा देता रहा
                              है |
                                  इसी प्रेरणा के उद्वेग के चलते अपने किशोरावस्था में ( ये तकरीबन १९८९ की
                               बात है,तब मै १२ वीं का छात्र था )मैंने कुछ प्रयास किये थे |यहाँ ये बता दें कि
                               मेरा परिवार ब्राह्मन पुरोहित वंश होने तथा परिवार में विद्याव्यसनी स्वभाव
                               के सदस्यों की सदैव प्रचुर मात्रा में उपलब्धता के चलते पढने लिखने की परंपरा
                               सदा से रही है ,चाहे कोई भी काल हो मेरे परिवार में साक्षरता की दर उस काल
                              विशेष में समाज में प्रचलित औसत साक्षरता की दर से काफी ज्यादा रही है,यहाँ
                               तक कि परिवार के पूर्वकालिक सदस्यों की रुचियों ,गतिविधियों के विषय में
                              काफी मात्रा में लिखित सामग्री भी उपलब्ध रही है,पुनः जिस समय मैंने अपने
                              वंश के बारे में जानकारी एकत्र करने का प्रयास आरम्भ किया था उस समय
                               अतीत की कड़ियों के रूप में मेरे परिवार के कई वरिष्ठ सदस्य अभी जीवित
                               थे जिनके योगदान के बिना मेरा यह प्रयास कतई संभव नहीं हो पाता|

                                        इस लेख के ऊपर जो चित्र दिख रहा है वह मेरे चतुर्वेदी कुटुंब
                                का वंशवृक्ष है तथा मेरे किशोरावस्था के उन प्रयासों का प्रतिफल जिसका
                               जिक्र मै पहले कर चूका हूँ | किसी के परिवार की वंशावली में व्यापक समाज
                               की क्या दिलचस्पी हो सकती है जब तक की सम्बंधित वंशावली में कोई
                               राजा महाराजा न उपस्थित हो?  पर यहाँ इस वंशवृक्ष पर जरा करीबी नज़र
                                डालें तो फौरी तौर पर ये बात वाजे हो जाती है की यह कुल १४ पीढ़ियों
                                की सूचना देती है ,यदि एक पीढ़ी के अंतराल को समय की इकाई  में
                                मापें और मान लें ३० वर्ष का भी अंतर दें तो यह वंशावली तकरीबन ४००
                                वर्षों पीछे तक की सूचना इस परिवार विशेष के सदस्यों के बारे में देती
                                है | ४ शताब्दी पूर्व अर्थात हम मुग़ल काल में प्रविष्ट हो जाते हैं ,बस
                                यहीं से इस दस्तावेज़ की सामाजिक  उपादेयता आरम्भ हो जाती है|
                                सबसे पहले तो जो बात गौर करने की है वो व्यक्तियों के नामों की,
                                इस वंश वृक्ष के जरिये हमें  नाम रखने के पीछे छुपी प्रवृत्तियों
                               के बारे में थोडा इशारा मिलता है , जहाँ मुग़ल काल में नाम अननी,
                               तईका, डोमन जैसे मिलते हैं तो ब्रिटिश काल तक रामनिरंजन ,शिववरण
                               जैसे पौराणिक रूप लेते हैं तो आज के उत्तर आधुनिक काल में
                               युगांत, सिद्धांत ,संस्कार जैसे 'ट्रेंडी' साहित्यिक पदों का रूप ले लेते
                                हैं| कुटुंब में पुत्रियों के नाम की अनुपस्थिति हमारे समाज की  सर्वकालिक
                                रूग्णता 'लिंग आधारित भेद भाव' की तरफ संकेत करता है |मैंने अपनी
                                जानकारी के मुताबिक़ वर्तमान समय से उपलब्ध पुत्रियों का नाम इसमें
                                जोड़ने का प्रयास किया परन्तु फाईल के काफी बड़ी होजाने तथा अप्रबंधनीय
                                हो जाने के जोखिम के चलते इस प्रयास को मैंने छोड़ दिया ,इसे किसी
                                अन्य रूप में मै शामिल करने का इरादा रखता हूँ|
                                                                     मुग़ल काल तक इसकी समकालीनता को
                               देखते हुए तथा इस कुटुंब की भौगोलिक अवस्थिति को ध्यान में रखकर
                              मैंने कुछ ऐतिहासिक कयास बैठाये तो बड़े दिलचस्प निष्कर्ष प्रकट हुए|
                              उदाहरण के तौर पर चूँकि यह परिवार गंगा नदी के तट के काफी समीप
                              आवासित था और इस वंशावली का पिछला ज्ञात सिरा मुग़ल काल के
                              आरम्भ तक जा पहुंचता है तो इस बात की संभावना काफी प्रबल हो जाती
                              है की १५४० में चौसा(बक्सर  जो कि गंगा तट पर है और बलिया से बहुत
                              दूर नहीं है) के युद्ध में शेरशाह के अफगान साथियों के हाथों मार खाने
                               के बाद हुमायूँ या उसके सैनिकों को गंगा के रास्ते कन्नौज क़ी तरफ
                              भागते इस वंशावली के कुछ व्यक्तियों ने या तो स्वयं अपनी आँखों से
                              देखा हो या इसकी चर्चा सुनी हो | उस जमाने में संचार मीडिया क़ी सम्पूर्ण
                              अनुपस्थिति तथा तुर्कों के लम्बे अत्याचारी शासन द्वारा जनित आम
                               जनता क़ी राजनीतिक उदासीनता के मद्देनजर यह तथ्य ( जो एक अनुमान
                               पर आधारित है ) काफी महत्वपूर्ण हो जाता है |हो सकता है इनमे से कुछ
                               नामों ने १६७९ में औरंगजेब द्वारा जजिया लगा देने के बाद औरंगजेब
                               के सिपाहियों को जजिया वसूलते  देखा हो या स्वयं अपने हाथों दिया हो
                               पुनः ब्रिटिश काल में १९४२ में बलिया के कुछ अवधि के लिए अंग्रेजों के
                               हाथ से फिसल जाने तथा उसके बाद पुनः अंग्रेजों का बलिया पर कब्ज़ा
                               एवं तद्जनित दमन के कुछ लोग प्रत्यक्ष दर्शी रहे होंगें|
                                              इन सब बातों का तात्कालिक महत्व भले कुछ ख़ास न लगे
                               परन्तु अपने वंश के इतने पुराने नामों को खोज निकलना अपने आप में
                               महत्वपूर्ण है ,विशेष तौर पर आज के शिक्षा तथा व्यवसाय के चलते अपने
                               मूल स्थान से विस्थापित होते एवं तेजी से अपने आप में सिकुड़ते जाते
                               'न्यूक्लियर' परिवारों के युग में|
                                                            अब मैं अपने  इस 'ऐतिहासिक निर्माण ' के स्रोतों
                              के विषय में थोड़ी चर्चा करना चाहूँगा | हमारे पूर्वी उत्तर प्रदेश व बिहार
                              में मांगलिक आयोजनों में 'पितर नेवतनी' का एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम
                              होता है जो पूरी तरह से घर क़ी बड़ी बूढी महिला सदस्यों के नेतृत्व में
                              संचालित होता है , इस कार्यक्रम का उद्देश्य यह है कि हमने एक मांगलिक
                              आयोजन इश्वर की असीम अनुकम्पा से किया है तथा हम अपने पूर्वजों
                               का भी आह्वान करते हैं कि वो हमारे इस आयोजन में शरीक हों तथा
                               अपनी स्नेह दृष्टि बनाये रखें | इस पितर नेवतनी में घर कि महिलाएं
                               गीत गाती हैं और इन गीतों के जरिये पितरों का एक एक कर नाम
                               लेकर आह्वान करती हैं | इन गीतों में उस कुटुंब के तमाम पूर्वजों
                               के नाम छुपे होते हैं जो चूँकि वैदिक काल की भांति श्रुति -वाचिक
                               परंपरा में पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते रहने के कारण काफी अव्यवस्थित
                               होते हैं तथा उनमें मूल नामों से अपभ्रंश हो जाने की काफी गुंजाईश बनी
                               रहती है फिर भी किसी परिवार के इतिहास निर्माण में  इन का अनगढ़
                              प्राथमिक स्रोत के रूप में महत्व नकारा नहीं जा सकता , तो मैंने भी इन्हें
                              प्राथमिक स्रोत के तौर पर इस्तेमाल किया और इनकी तस्दीक के तौर
                               पर जैसा मैंने पहले बताया उस समय अतीत कि श्रृंखला के रूप में कुछ
                              बुजुर्ग मौजूद थे तथा कुछ लिखित सामग्री भी थी जो इन स्रोतों का
                             समर्थन करती थी | इस तरह मैंने आज से तक़रीबन २० वर्ष पूर्व अपनी
                             कि शोरावास्था में इस ऐतिहासिक पुनर्निर्माण को एक बड़े कागज़ पर
                             उतारा ,पिछली बार जब मैं गाँव गया था तो वह कागज़ मुझे अम्मां के
                             बक्से में मिला ,मिलते ही मुझे  इसे डिजिटल स्वरुप देकर सहेजने का
                             विचार मन में आया और पुनः वापस आकर माईक्रोसाफ्ट वर्ड पर उतारने
                             का काम तथा पुनः पीडीऍफ़ फाइल में रूपांतरण और अंततोगत्वा jpeg
                             फाइल बनाकर ब्लॉग पर यह पोस्ट ,कैसा लगा बताते चलियेगा और
                             हाँ अगली बार किसी शादी विवाह में महिलाओं को गीत गाते सुनियेगा
                             तो थोडा चैतन्य रहने कि जरूरत है क्या पता पारिवारिक इतिहास का
                             कोई 'फोसिल' हाथ लग जाये |     

Friday, February 4, 2011


                                 भीमसेन जोशी : संगीत का अपराजेय योद्धा 
                     
                         पिछले  सोमवार को पूना से एक ऐसी खबर आई  जो दुनिया के कोने कोने में 
                   फैले हिन्दुस्तानी शास्त्रीय गायन के चहेतों को दुखी और विषादग्रस्त कर गयी
                   सुबह ८ बजकर ४५ मिनट पर सह्याद्री अस्पताल में भारतीय संगीत के 
                    देदीप्यमान नक्षत्र भारतरत्न पं. भीमसेन जोशी ने अंतिम सांसें लीं | 
                                                              पं . भीमसेन जोशी के व्यक्तित्व से प्रथम
                    परिचय किशोरावस्था में दूरदर्शन के 'मिले सुर मेरा तुम्हारा ' कार्यक्रम
                    के जरिये हुआ था उस समय न तो शास्त्रीय संगीत की कुछ खास समझ थी
                     न पंडित जी की असीम प्रतिभा का अनुमान ,पर इतना जरूर था कि उस 
                     कार्यक्रम में जिसमें कई आवाजें शामिल थीं पंडित जी कि आवाज़ और गायन
                     मुद्रा  एक खास किस्म क़ी न समझ में आ सकने वाला तिलिस्म पैदा 
                      करती थी जिसके आकर्षण में  खिंचा मेरा किशोरमन  हर बार उस 
                      कार्यक्रम के उस हिस्से क़ी प्रतीक्षा करता था जब पंडित जी टी वी के 
                      परदे पर दीखते थे , गायन से अधिक पंडित जी क़ी शायद विशिष्ट 
                      मुद्राएँ  प्रभावित करतीं थीं | बाद में आल इंडिया रेडियो के संसर्ग में 
                      पंडितजी क़ी इक्का दुक्का प्रस्तुतियां कभी कभार सुनने को मिलती 
                       रहीं, वास्तव में देखा जाय तो संगीत  क़ी अन्य विधाओं क़ी तरह
                        शास्त्रीय संगीत का कोइ नियमित मंच इस देश में कभी रहा ही नहीं'
                        इस मामले में आकाशवाणी पर रात को १० बजे प्रसारित होनेवाला 
                        संगीत का अखिल भारतीय कार्यक्रम एक अकेला सरकारी प्रयास 
                        रहा है उसमे भी आम संगीतप्रेमी क़ी सहभागिता नाम मात्र क़ी ही थी|
                                               कुछ साल पहले से जब से संगीत का 'स्वाद' विकसित
                       होना  आरम्भ हुआ है तबसे पंडित भीमसेन जोशी क़ी कुछ प्रस्तुतियां 
                        जेहन का तकरीबन स्थायी हिस्सा बन चुकीं हैं| इनमे 'जो भजे हरि
                         को सदा सोई परम पद पावे ','चतुर्भुज झूलत श्याम हिंडोरे', 'जय
                         दुर्गे दुर्गति परिहारिणी ', 'राम का गुण गान करिए', 'ये तनु मूंदना 
                         बे मूंदना','सुमति सीताराम आत्माराम' ........प्रमुख हैं| इन सब के 
                         अतिरिक्त पुणे के सवाई गंधर्व संगीत समारोह क़ी एक रेकॉर्डिंग 
                         जिसमें पंडित जी ने राग देशकर क़ी एक बंदिश गायी थी ,वह तो 
                         भूलती ही नहीं| मेरे कार्यालय के सहकर्मी और संगीत क़ी अधिक 
                         जानकारी रखने वाले  नरसिम्हा जी कहा करते थे कि संगीत सीखने
                         वाले को सिर्फ पंडित भीमसेन जोशी को सुनना चाहिए , अब जबकि
                         पंडित जसराज , पंडित कुमार गन्धर्व ,पंडित मल्लिकार्जुन मंसूर 
                          सबको पर्याप्त मात्रा में सुन चूका हूँ तो मुझे भी ऐसा लगता है कि 
                          हैं तो ये सभी नाम अद्वितीय ,सबकी एक विशिष्ट गायन शैली
                           है पर जब हिन्दुस्तानी शास्त्रीय गायन कि कापी बुक स्टाइल की
                           बात होगी या यों कहें संगीत की सर्वशुद्ध प्रस्तुति की बात होगी
                            तो पंडित भीमसेन जोशी के आगे शायद ही कोई ठहर पाए| 
                                  वास्तव में पंडित जी कला के उन बिरले साधकों में से 
                            थे जिन्होंने कभी बाज़ार के मांग के दबाव की परवाह नहीं की
                             और सिर्फ वही गाया जो उन्हें सही लगा |पंडित जी के आरंभिक
                             वर्षों के विडियो देखने से लगता है जैसे किसी खास राग  के ठीक ठीक 
                              अभिप्राय को समझाने के लिए वह अपने शरीर और मुद्राओं की चिंता 
                               किये बगैर कितने  गहन प्रयत्न में आत्मलिप्त हैं | 
                                    टाइम्स ऑफ़ इंडिया में शांता गोखले ने पंडितजी के गायन 
                                 शैली पर एक अद्वितीय टिप्पड़ी कि है जिसे मै यहाँ प्रस्तुत 
                               करना चाहूँगा ,मूल टिप्पड़ी चूँकि अंग्रेजी भाषा में है और अनुवाद 
                               करने में टिप्पड़ी में प्रयुक्त मूल शब्दों के चमत्कार के लुप्त हो 
                               जाने का खतरा है अतः यह जोखिम उठाये बगैर मै मूल टिप्पड़ी 
                               टिप्पणीकार द्वारा प्रयुक्त भाषा में अविकल रूप से यहाँ रख
                               रहा हूँ | शांता लिखती हैं    " He sawed the air,chopped up the
                                ground,flew a kite,plucked notes out of the firmament,brought
                                them down to earth,buried them deep in it's womb,bent so low
                                that his head almost touched the floor.Then  he swung up,mouth
                                wide open in a painful grimace,twisted and turned his torso, till
                                one wondered why music was such an excruciating exercise for
                                him"  वह आगे लिखती हैं "His violent gestures and body movements
                                  might have been external signs of the struggle he was engaged in" 
                   
                                          इतिहासकार और स्तंभकार रामचंद्र गुहा  दैनिक 'हिंदुस्तान'
                                 में लिखते हैं " भीमसेन की स्मृति में लिखे गए लेख उनकी आवाज़ 
                                 की ताकत का वर्णन जरूर करते हैं| उनकी आवाज़ की ताकत और विस्तार
                                 शंकर,दुर्गा और मारु बिहाग जैसे रागों में साफ़ झलकता है " आगे " क्रिकेटर 
                                 और लेखक अपने समय और देश से जाने जाते हैं , लेकिन महान 
                                 संगीतकार युगों के और समूचे विश्व के होते हैं"
                                प्रसिद्ध शास्त्रीय संगीत गायक सुरिंदर सिंह सचदेव ने लिखा " जहाँ 
                               प्रतिभा ,साधना और निष्ठां मिलती है वही भीमसेन जोशी होते हैं"
                              
                               एक से बढ़कर एक अनगिनत श्रद्धांजलियां , स्मृति लेख बुद्धिजीवियों 
                                कलाकारों , संगीत भक्तों ने लिखीं पर मुझे लगता है की उनकी 
                                सबसे बड़ी स्मृति उनकी तमाम आडिओ विडियो रिकार्डिंग्स हैं
                                जिन्हें सुनते हुए उस संगीत के नशे में उतरते हुए भीमसेन जोशी 
                                के होने का मतलब ठीक ठीक समझा जा सकता है.