अभिलाषाओं की अंधी दौड़ ने
कमर तोड़ी नैतिकता की
भावात्मक अर्थवत्ता की और संस्कारिक गुणवत्ता की,
सारे आदर्श सारी नैतिक व्याख्याएं,
आकाँक्षाओं की लौ में पिघलने लगती हैं,
और
जब कभी सोचता हूँ
अपने विषय में
एक अच्छे नस्ल के घोड़े की याद आती है,
जिसे मालिक ने था खिलाया बहुत,
ललकारा बहुत,
इस उम्मीद में की घोडा एक अदद मेडल लायेगा
जीतकर दौड़ में
वही दौड़
अब भी जारी है
अभिलाषाओं की,
घोड़े बहुत हैं,
नैतिक व किताबी आदर्शों की धुल
ऊँचे आसमान में उड़ाती दिखती है
सुनाई पड़ती है ललकार
पीछे से मालिकों की
साथ में नसीहते भी
कि मत बाज आना
टांग अड़ाने से भी
नियमो को तोड़ने से भी
यदि ऐसा करना पड़े
एक अदद मेडल कि खातिर
पर कोई नहीं सोचता
नियमो कि भी कुछ औकात हुआ करती थी कभी
दर्ज करें मेरा बयान
मैं भी एक घोडा हूँ
जो दौड़ाया गया हूँ
अपने मालिकों द्वारा
दुनियावी रेस में,
मैंने भी अपने दौड़ते पैरों से
आदर्शो की जमीन पर खरोंच लगाते
उड़ा दी है किताबी नैतिकता की धूल
आसमान में ऊँची
इतनी दौड़ इतने घोड़े
पर मेडल पाएंगे कुछ ही
सब नहीं
यह सार्वभौमिक सत्य
जानकर भी मालिक नहीं जानते
दौड़ाते हैं घोड़े
एक अदद मेडल की आस में
यह बड़ा आश्चर्य है
और उत्तर भी
युधिष्ठिर के प्रख्यात यक्षप्रश्न का
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