पुस्तकस्थातुयाविद्या(१): जिम कॉर्बेट
संस्कृत का एक श्लोक जो कभी प्रारंभिक कक्षाओं की पाठ्यचर्या का हिस्सा
था ,
'पुस्तकस्थातुयाविद्या परहस्तगते धनम,कार्यकाले समुत्पन्ने न सा विद्या
न तद्धनम ' अर्थात किताब में रखा ज्ञान किसी दुसरे के हाथ में गए धन के सद्द्रिश्य
है वक़्त पड़ने पर न वो धन काम आता है न वह विद्या | वास्तव में पुस्तकों में
तो विश्व का तमाम संचित ज्ञान कोष पड़ा ही हुआ है परन्तु वह अपने हाथ में
तभी आता है जब हम कभी उनका अवलोकन करें |
इसी विचार ने मुझे "पुस्तकस्थातुयाविद्या" शीर्षक
से ब्लोग्पोस्ट की एक श्रंखला आरम्भ करने की प्रेरणा दी जिसमे मै अपने अब
तक के जीवन में आई उन पुस्तकों का ज़िक्र करूँगा जिन्होंने मेरे स्व ,मेरे सोचने
के ढंग ,मेरी जीवनदृष्टि, संक्षेप में मेरे समस्त व्यक्तित्व पर अपनी अमिट छाप
छोड़ी है | इन कुछ महत्वपूर्ण किताबों ने न केवल मेरे ज्ञान को समृद्धतर किया
बल्कि मुझे इस प्रकार कि अंतर्दृष्टि विक्सित करने में मदद की जिससे मेरे
परिवेश ,मेरे इर्द गिर्द की अब तक अदृश्य असंख्य चीजें मेरे दृष्टि की व्याप्ति
की सीमा के अन्दर आ गिरीं | हर पढ़े लिखे व्यक्ति का किताबों के सबंध में ऐसा
ही तजुर्बा होगा ऐसा मेरा अनुमान है, आखिर गाँधी ने भी अपने अहिंसा ,सत्याग्रह
इत्यादि तमाम नैतिक औजारों का मूल तोल्स्तोय , रस्किन ,थोरियो की किताबों
में ही कहीं होना बताया था | बहरहाल यह जरूरी नहीं की धर्म ,दर्शन ,इतिहास या
राजनीति जैसे किसी गंभीर विषय की ही किताब किसी व्यक्ति के जीवन पर असर
डाले ,कभी कभी यह काम कोई मनोरंजक साहित्य अथवा किसी हलके फुल्के
विषय पर लिखी किताब भी बेहतर ढंग से कर सकती है ,मिसाल के तौर पर जब
हम लोगों की पीढ़ी बचपन से किशोरावस्था की ओर बढ़ रही थी तो 'अमर चित्र कथा'
के इतिहास के तमाम पात्रों पर आधारित कामिक्स श्रृंखला ने जितना असर डाला
था उतना शायद ही कोई दूसरा बाल साहित्य कर पाया हो ,मुझे अब तक याद है
मार्च में परीक्षा समाप्त हो जाने के बाद अप्रैल मई की गर्मी की छुट्टियों की लू भरी
दोपहरी में जब घर के तकरीबन सारे बालिग़ लोग सो रहे होते थे तो हम ( मैं और
सुदेश) 'गोरा बादल' या 'चित्तौड़ की रानी' पढने में मशगूल होते थे |
खैर वो किस्सा किसी और पोस्ट में बयां होगा ,फिलवक्त मैं
'पुस्तकस्थातुयाविद्या' श्रृंखला का प्रारंभ एक ऐसी किताब के ज़िक्र से कर रहा
हूँ जिसे मैंने अभी हाल ही में पढ़ा और पढ़ कर खासा अफ़सोस किया कि इस किताब
को मैंने बचपन में क्यों नहीं पढ़ा? निश्चय ही यदि मैंने इसे तब पढ़ा होता तो मेरे
बहुरंगी बचपन के चित्र में कुछ और रंग, जीव जंतु ,जंगल ,नदी पहाड़ और कुछ और
कुतूहल भरे खेल शामिल हो गए होते , मेरा संकेत महान शिकारी,संरक्षणवादी,
साहित्यकार और पर्यावरण प्रेमी जिम कॉर्बेट की लिखी ३ पुस्तकों (maneaters of kumaon,
the temple tiger,the man eater leopard of rudraprayag) की ओर है जिन्हें oxford university
press ने एक ही जिल्द में "omnibus" नाम से प्रकाशित किया है |
किताब में १९२० से १९४० के बीच कुमाऊँ के पहाड़ी
क्षेत्र में आतंक का पर्याय बने कुछ नरभक्षी बाघ ,बाघिन तेंदुओं का ज़िक्र है जिनके शिकार
के लिए क्षेत्र की जनता और तत्कालीन यूनाईटेड प्रोविंस सरकार के अनुरोध पर जिम
कॉर्बेट को बार बार तकरीबन प्रत्येक वर्ष उन जंगलों में जाना पड़ा |अब तक के वर्णन से
अगर आप इस किताब को महज एक ' शिकार कथा 'समझ बैठे हैं तो आप भयंकर गफलत
में है | दर असल शिकार के बहाने कॉर्बेट साहेब ( जैसा कुमाऊनी लोग लेखक को बुलाते थे)
ने जंगल के उस जगत की बेजोड़ तस्वीर पेश की है जिसे प्रकृति से काफी दूरी बना
लेने वाली मनुष्यजाति की ही तरह उसी विधाता ने ही सृजित किया था और वहां
अब भी प्रकृति के अनुशासन मान्य हैं जबकि मानव जाति ने प्रकृति से विलगाव को
ही अपनी सभ्यता का मापदंड बना रखा है |
कॉर्बेट ने शिकार को एक खेल न बताकर
इसे लोक कल्याणकारी तथा पर्यावरण जागरूकता से जोड़कर देखने की कोशिश की
है ,वह शिकार के लिए केवल उन्हीं परिस्थितियों में सहमत होते हैं जब बाघ नरभक्षी
हो चुका हो तथा उसके जीवित रहने से आस पास के ग्रामीणों एवं उनके मवेशियों को
स्पष्ट खतरा हो |कई बार सरकार उनसे व्यापक जनहित में शिकार का निवेदन करती
है तो कई बार स्वयं कुमाऊँ के लोग उनसे अपनी और अपने मवेशियों के रक्षार्थ
गुहार लगाते हैं|एक स्थान पर तो पुस्तक में उस पत्र को ज्यों का त्यों दिया गया है
जो कॉर्बेट को संबोधित कर गढ़वाल जनपद के ३ गाँव के निवासियों द्वारा लिखा
गया है ,पत्र के निचे ४० हस्ताक्षर तथा ४ अंगूठा निशान मौजूद हैं |
शिकार की रोमांचक और जोखिमपूर्ण कथा
को कहते चलने के साथ साथ कॉर्बेट कुछ गज़ब की दिलचस्प जानकारियां देते चलते
हैं ,वह यह धारणा बना कर चलते हैं कि पाठक नगरीय जीवन का अभ्यस्त है और
उसे जंगल के विधान के विषय में यह ज्ञान देते चलना आवश्यक है | उदाहरण के
तौर पर वह लिखते हैं कि किसी बाघ के पाँव के जमीन पर पड़े निशान को देखकर
यह बताया जा सकता है कि उस बाघ कि उम्र क्या होगी?,वह नर है या मादा ?,
उस स्थान से गुजरते हुए उस कि रफ़्तार क्या रही होगी?, और सबसे महत्वपूर्ण
कि क्या वह नरभक्षी है ? तथा यदि वह मादा है तो क्या उसके पेट में बच्चा है?
किसी प्राणी के मात्र पद चिन्ह का परीक्षण कर इतनी सूचनाएं एकत्र की जा सकती
हैं यह तथ्य अपने आप में दिलचस्प है | इसी प्रकार एक स्थान पर कॉर्बेट लिखते
हैं "it is generally believed that tigers kill by delivering a smashing blow on the neck,
this is incorrect .tigers kill with their teeth." एक अन्य स्थान पर ..."the mating
season for tigers is an elastic one extending from November to April."..'.Tigers
never kill in excess of their requirements'....when a tiger hides his kill it is usually
an indication that he does not intend lying up near it,but it is not safe to assume
this always.'...
इसी प्रकार की तमाम दिलचस्प जानकारियां जिन्हें जानने का
आज के नगरीय जीवन वाले आधुनिक शिक्षित व्यक्ति केलिए शायद ही अन्यत्र
कोई स्रोत मौजूद हो |पुरे वर्णन में जंगल उसके पशु पक्षी नदी पहाड़ और विशेष
रूप से बाघ ( जिसके संरक्षण के नाम पर आज कल काफी शोर गुल मचाया जा
रहा है तथा तमाम संस्थाएं अरबों के खेल में लिप्त हैं) के जीवन ,उनके मौलिक
अधिकार तथा पृथ्वी पर उनके पर्यावास पर कमाल की सजग चैतन्यता तथा
सहानुभूति की अंतर्धारा स्पष्ट रूप से महशुश की जा सकती है | कॉर्बेट यहाँ
तक कहते हैं कि घनघोर जंगल में भी कभी वह अपने साथ ३ से ज्यादा
कारतूस ले कर नहीं चलते , बल्कि बाद में तो वह घने जंगलों में बन्दूक
के स्थान पर कैमरा लेकर जाना पसंद करते हैं| शिकार की तमाम रक्त-
रंजित घटनाओं के बावजूद कहीं भी पाठक के मन मस्तिष्क पर हिंस्र भाव,
क्रूरता ,बर्बरता या किसी विशेष जंगली प्राणी से घृणा जैसे भाव नहीं उपजता
यह लेखक के सजग पर्यावरणीय लेखन की सफलता मानी जानी चाहिए|
एक स्थान पर बाघ को अपने शिकार को विस्थापित करने
के तरीके के बारे में कॉर्बेट लिखते हैं " the word 'drag', when it is used to
describe the mark left on the ground by a tiger when it is moving it's kill
from one place to another, is misleading,for a tiger when taking it's kill
any distance( i have seen a tiger carry a full grown cow for four miles)
does not drag it, it carries it, and if the kill is too heavy to be carried,it
is left " ऐसी एक से बढ़कर एक हैरानकुन जानकारियां जिसके स्रोत
सिर्फ कॉर्बेट ही हो सकते हैं | इस सब के पीछे उनका नैनीताल के आस पास
के जंगलों में पशु पक्षियों के करीबी साहचर्य में गुजरा बचपन है तो
उनकी व्यक्तिगत जीवन की सादगी भी है जिसके चलते १९३० में (अनुमान
किया जा सकता है की उस समय कितनी कारें भारत में होंगी और
उनसे चल पाना किस वर्ग के बूते की बात होगी ) वह कार से बरेली
से रामनगर जाते हैं और फिर वहां से करीब ३० किलोमीटर घने
जंगलों में पैदल और वो भी अकेले ,साथ है तो सिर्फ एक बन्दूक
का और ३ कारतूस ,रात घने जंगल में किसी पेड़ की डाल पर
कटती है, रातमें बारिश होती है ,कपडे भीग जाते हैं और फिर
सुबह किसी जंगली झरने पर स्नान एवं प्राकृतिक हवा से तैलिये का
काम लिया जाता है |वास्तव में इस किताब को पढने के पहले
मै जिम कॉर्बेट का नाम आते ही एक मशहूर शिकारी के बारे में
सोचता था परन्तु इसे पढने के बाद मुझे लगा कि जिम कॉर्बेट
आज के निरंतर क्षरणशील पर्यावरण तथा अति उपभोक्तावादी
सुविधाभोगी आत्मकेंद्रित दिखावे की भौंडी संस्कृति वाले समाज
में जिम कॉर्बेट के विचार ,व्यक्तित्व व समग्र लेखन पहले से
कहीं अधिक प्रासंगिक हो उठे हैं ,आवश्यकता है समाज को कॉर्बेट
को नए सिरे एवं नए नजरिये से पुनर अध्ययन की .......तो चलें
कुमाऊँ की सैर पर .....जानवरों ,चिड़ियों ,घूरल ,हिरन और तमाम
रंग और गंध के पेड़ों की जादुई दुनिया से दो चार होने .....बरास्ते
..........जिम कॉर्बेट