कविता का नया हस्ताक्षर: रामजी
कविता के आकाश पर एक नए नक्षत्र का उदय हुआ | साहित्यिक मासिक 'पाखी'
के दिसंबर'१० अंक में युवा नवोदित कवि रामजी तिवारी की ३ कवितायेँ छपीं |
रामजी तिवारी मेरे पुराने मित्र एवं कार्यालय के सहकर्मी रहे हैं इसके अतिरिक्त
उनकी जड़ें भी मेरे मूल अंचल में ही अवस्थित हैं | इन सब मिले जुले कारणों से
उनकी रचना एक प्रतिष्ठित साहित्य मासिक में प्रकाशित होने की सूचना
मिलने पर एक अनिर्वचनीय आनंद एवं रोमांच की अनुभूति हुई| आखिर 'अपने
बीच' के किसी को साहित्य जगत में 'स्वीकृति' मिली| पहचान का गौरव
सर्वश्रेष्ठ गौरव है| रामजी की कविता छपने से भले ही साहित्य की दुनिया
में उनका औपचारिक प्रवेश हुआ हो पर जहाँ तक अपने 'मित्र-वृत्त' का प्रश्न
है वह सदैव एक अनिवार्य व सार्थक उपस्थिति रहे हैं| पिछले कुछ वर्षों से
भले ही भौतिक दूरियां रहीं हों परन्तु रामजी समय समय पर विभिन्न
समीचीन प्रसंगों पर अपनी समालोचनात्मक प्रतिक्रियाओं व विचारपूर्ण
टिप्पड़ियों से मेरी चिंतनधारा में सार्थक हस्तक्षेप निरंतर करते रहे हैं|
हम लोग अपने कुछ और मित्रों के साथ मिलकर साहित्य ,राजनीति,कला
दर्शन,विज्ञानं ,धर्म ,संस्कृति एवं विभिन्न सामयिक महत्व के विषयों
पर खुली ,अंतहीन व यदा कदा आक्रामक बहसें भी करते रहे हैं| अब अपने
'गिरोह' के किसी 'अड्डेबाज' का छपे हुए पन्ने पर 'मौजूदगी' देखकर
एक पुरसुकून इतमिनान होता है |
'पाखी' के इस अंक में रामजी की कुल
३ कवितायेँ 'मुखौटे', 'भ्रम' तथा 'सिंहासन और कूड़ेदान' शीर्षक से
प्रकाशित हुई हैं ,इनमें पहली २ वैयक्तिक व मनोवैज्ञानिक किस्म
की कवितायेँ हैं जबकि अंतिम 'सिंहासन और कूड़ेदान' मनुष्य की
सोंच और व्यवहार पर विश्वव्यापीकरण व बाजारवाद के निर्मम
प्रहार के प्रभाव को रेखांकित करती है| 'सिंहासन और कूड़ेदान'
शीर्षक पढ़ते ही मेरे मन में फ़्रांस के लुई १६वे से लेकर नारायण
दत्त तिवारी तक के अनेक 'नायकों' की स्मृतियाँ घूम गईं जो
कभी 'सिंहासन' पर विराजमान थे परन्तु उनके करियर की गोधूलि
में इतिहास ने उनके लिए 'कूड़ेदान' की नियति चुन रखी थी| वैसे
इस कविता में रामजी ने क्रिकेट खिलाडियों की विज्ञापनों के जरिये
अंधाधुंध निर्लज्ज कमाई व व्यापक समाज पर पडनेवाले तद्जनित
प्रभाव की ओर से लगभग 'आपराधिक' उदासीनता को रूपक बनाकर
एक व्यापक मर्ज़ की तरफ इशारा करने की कोशिश की है| कविता में
१९९१ के बाद आई आर्थिक राजनीतिक नीतियों में परिवर्तन और
समाज पर पडनेवाले उनके व्यापक प्रभाव का जायजा लेने की कोशिश
की गयी है और आज के नव-उदार'(neo-liberal) युग में होने 'स्याह-
सफ़ेद' बंटवारे(black and white classification with total absence of grey)
के बर अक्स इस रचनाकार को आसानी से 'वामपंथी' या कम से कम
माओवाद से सहानुभूति रखने के 'कलंक' से अभिषिक्त किया जा सकता
है| दर असल यही हमारे समय की विडम्बना है जब या तो आप हमारे
सहयोगी (strategic partner or ally ) हैं अन्यथा हमारे शत्रु(enemy)|
नीतिगत मतभेद या बीच के विचार का कोई 'स्पेस' मौजूद ही नहीं है|
या तो आप सत्ता के सहयोगी हैं या फिर 'माओवादी' बीच की कोई
जगह ही नहीं |
रामजी ने नव उदार अर्थ तंत्र तथा सर्वत्र व्यापी(omnipresent)
सर्वसक्षम(omniscient) बाजार के शासन एवं समाज पर कसते शिकंजे को
बखूबी पकड़ा है ,वह एक जगह लिखते हैं
'मैदान के भीतर का खेल
उस बाहर के खेल की
छाया है
जिसे समझने के लिए
सिर्फ क्रिकेट विशेषग्य होना
पर्याप्त नहीं'
वास्तव में इस कविता को पढना 'frontline' 'the hindu' या 'down to earth'
के किसी रिपोर्ट पढने जैसा ही है |
कविता का शिल्प व बिम्ब पूरी तरह उत्तर आधुनिक फॉर्मेट
में फिट बैठता है ,पूरी कविता बोर होने के जोखिम के बगैर आप एक बार
पढ़ सकते हैं ,संतुष्टि की आश्वस्ति है' पूरी कविता नेट पर पढने के लिए
www.pakhi.in पर जा सकते हैं
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