Wednesday, September 14, 2011

" समय का सत्य "

            बीत रहा है जीवन
            और मिट रहे हैं मिथक
            समय के सत्य पर घिसते घिसते
            उठ रहे है प्रश्न मन में
            क्या बीते हुए वर्षों की गिनती का ही नाम जीवन है ?
            परिभाषित करते हैं लोग
            इसे अपने अपने जुमलों में
            पर मेरी अज्ञानता आड़े आती है
            जीवन की तमाम उपलब्ध व्याख्याओं को
            अंगीकार करने में
            कभी कभी लगता है संवेदनशून्य हो चला हूँ
            शायद सच में
            पर काश!
            इस सत्य को स्वीकारता
            सच तो है
            घटनाओं की मार ने
            भोंथरा दी है संवेदना की धार
            भयाव्रित्त है मन
            कहीं फिर न हो यह अनर्थ
            फिर न हो परीक्षा किसी सत्य की
            बहत पुस्तकें चाट डाली हैं
            सत् निकाल दिया है शास्त्रों का
            पर फिर भी मंडराती है छाया
            एक निरक्षरता की
            आखिर निरक्षरता भी
            एक प्रकार की वंचना है
            इस अशिक्षित शिक्षा ने
            इस निरक्षर साक्षरता ने
            इन अ-संस्कृत संसकारों ने
            नाम दिया है २४ वर्षों को
            जीवन.....................  
               

2 comments:

  1. बढ़िया है...आगे भी कोशिश जारी रहे , यही कामना है.......सच में यह सवाल बहुत बड़ा है कि हम किसे जीवन माने......? और यह भी कि क्या हम इसी के लिए आये थे यहाँ..? ....हम सबको इन सवालो से टकराना चाहिए....

    ReplyDelete
  2. बीतता जीवन टूटते मिथक,सत्य परिभाषित नहीं भोगा गया,''सत्य ही सत्य है ?एक अच्छी रचना लगभग सत्य के संधान में रत ...शुभकामनाये

    ReplyDelete