वंशवृक्ष : पारिवारिक इतिहास का डिजिटल अर्काईव
हमें इतिहास में स्कूल से कालेज तक तमाम राजवंशों की वंशावली कंठस्थ
करवाई जाती है, भारत के इतिहास में हर्यंक वंश, मौर्या वंश,गुप्त,हर्ष,गुलाम,
खल्जी ,पल्लव,चोल,चेर,पंडय ,राष्ट्रकूट,चालुक्य,तुग़लक ,लोदी,मुग़ल ...
वैसे ही विश्व इतिहास में फ्रांस के बोर्बों ,ऑस्ट्रिया हंगेरियन साम्राज्य के हैप्स्बर्ग
जर्मनी के होहेंजोलार्न,इंग्लैंड के तुडोर व स्टुअर्ट और न जाने कितने असंख्य
रजवाड़ों की वंशावलियां इतिहास के विद्यार्थी के लिए आतंक का सबब बनी
रही हैं |२० वीं सदी में लोकतान्त्रिक राज्यों के जोर पकड़ने के चलते इतिहास
की स्कूली पाठ्यचर्या में भी बदलाव परिलक्षित हुए ,अब इतिहास विषय में
राजाओं और युद्धों संधियों के इतिहास के स्थान पर आम जन के इतिवृत्त
पर ज्यादा जोर दिया जाने लगा ,अच्छी बात है अगर हम अकबर और जहाँगीर
के हरम में कितनी बेगमें थीं और उन्होंने अपनी जमीन बढ़ाने के लिए कितने
युद्ध लड़े , इसके बजाय हमें यह सूचना मिले कि उस वक्त आम आदमी का जीवन
कैसा था तथा उसके चिंताओं के विषय क्या थे ?
आम जन के इतिहास पर याद आया कि
आम जन तो हम भी हैं और जाहिर है हमारे बाप दादा भी आम जन रहे होंगें
हमें अपने कुनबे के माज़ी के मुत्तालिक कितना इल्म है? सवाल परेशान करने
वाला है , आखिर आजकल किसी भी आम आदमी से पूछिये कि वह अपनी
पिछली पीढ़ी कितने नामों को जानता है तो जवाब आयेगा ज्यादा से ज्यादा
४ या बमुश्किल ५ पीढियां ,कितने लोग होंगे जो अपने दादाजी के परदादा
के नाम से वाकिफ हैं? और किसी की तो नहीं जानता पर जहाँ तक स्वयं
की बात है ,यह प्रश्न किशोरावस्था से ही मुझे कुछ खोजने ,अन्वेषण करने
या यों कहें की अपने परिवार के पुरातत्व में कुछ उत्खनन की प्रेरणा देता रहा
है |
इसी प्रेरणा के उद्वेग के चलते अपने किशोरावस्था में ( ये तकरीबन १९८९ की
बात है,तब मै १२ वीं का छात्र था )मैंने कुछ प्रयास किये थे |यहाँ ये बता दें कि
मेरा परिवार ब्राह्मन पुरोहित वंश होने तथा परिवार में विद्याव्यसनी स्वभाव
के सदस्यों की सदैव प्रचुर मात्रा में उपलब्धता के चलते पढने लिखने की परंपरा
सदा से रही है ,चाहे कोई भी काल हो मेरे परिवार में साक्षरता की दर उस काल
विशेष में समाज में प्रचलित औसत साक्षरता की दर से काफी ज्यादा रही है,यहाँ
तक कि परिवार के पूर्वकालिक सदस्यों की रुचियों ,गतिविधियों के विषय में
काफी मात्रा में लिखित सामग्री भी उपलब्ध रही है,पुनः जिस समय मैंने अपने
वंश के बारे में जानकारी एकत्र करने का प्रयास आरम्भ किया था उस समय
अतीत की कड़ियों के रूप में मेरे परिवार के कई वरिष्ठ सदस्य अभी जीवित
थे जिनके योगदान के बिना मेरा यह प्रयास कतई संभव नहीं हो पाता|
इस लेख के ऊपर जो चित्र दिख रहा है वह मेरे चतुर्वेदी कुटुंब
का वंशवृक्ष है तथा मेरे किशोरावस्था के उन प्रयासों का प्रतिफल जिसका
जिक्र मै पहले कर चूका हूँ | किसी के परिवार की वंशावली में व्यापक समाज
की क्या दिलचस्पी हो सकती है जब तक की सम्बंधित वंशावली में कोई
राजा महाराजा न उपस्थित हो? पर यहाँ इस वंशवृक्ष पर जरा करीबी नज़र
डालें तो फौरी तौर पर ये बात वाजे हो जाती है की यह कुल १४ पीढ़ियों
की सूचना देती है ,यदि एक पीढ़ी के अंतराल को समय की इकाई में
मापें और मान लें ३० वर्ष का भी अंतर दें तो यह वंशावली तकरीबन ४००
वर्षों पीछे तक की सूचना इस परिवार विशेष के सदस्यों के बारे में देती
है | ४ शताब्दी पूर्व अर्थात हम मुग़ल काल में प्रविष्ट हो जाते हैं ,बस
यहीं से इस दस्तावेज़ की सामाजिक उपादेयता आरम्भ हो जाती है|
सबसे पहले तो जो बात गौर करने की है वो व्यक्तियों के नामों की,
इस वंश वृक्ष के जरिये हमें नाम रखने के पीछे छुपी प्रवृत्तियों
के बारे में थोडा इशारा मिलता है , जहाँ मुग़ल काल में नाम अननी,
तईका, डोमन जैसे मिलते हैं तो ब्रिटिश काल तक रामनिरंजन ,शिववरण
जैसे पौराणिक रूप लेते हैं तो आज के उत्तर आधुनिक काल में
युगांत, सिद्धांत ,संस्कार जैसे 'ट्रेंडी' साहित्यिक पदों का रूप ले लेते
हैं| कुटुंब में पुत्रियों के नाम की अनुपस्थिति हमारे समाज की सर्वकालिक
रूग्णता 'लिंग आधारित भेद भाव' की तरफ संकेत करता है |मैंने अपनी
जानकारी के मुताबिक़ वर्तमान समय से उपलब्ध पुत्रियों का नाम इसमें
जोड़ने का प्रयास किया परन्तु फाईल के काफी बड़ी होजाने तथा अप्रबंधनीय
हो जाने के जोखिम के चलते इस प्रयास को मैंने छोड़ दिया ,इसे किसी
अन्य रूप में मै शामिल करने का इरादा रखता हूँ|
मुग़ल काल तक इसकी समकालीनता को
देखते हुए तथा इस कुटुंब की भौगोलिक अवस्थिति को ध्यान में रखकर
मैंने कुछ ऐतिहासिक कयास बैठाये तो बड़े दिलचस्प निष्कर्ष प्रकट हुए|
उदाहरण के तौर पर चूँकि यह परिवार गंगा नदी के तट के काफी समीप
आवासित था और इस वंशावली का पिछला ज्ञात सिरा मुग़ल काल के
आरम्भ तक जा पहुंचता है तो इस बात की संभावना काफी प्रबल हो जाती
है की १५४० में चौसा(बक्सर जो कि गंगा तट पर है और बलिया से बहुत
दूर नहीं है) के युद्ध में शेरशाह के अफगान साथियों के हाथों मार खाने
के बाद हुमायूँ या उसके सैनिकों को गंगा के रास्ते कन्नौज क़ी तरफ
भागते इस वंशावली के कुछ व्यक्तियों ने या तो स्वयं अपनी आँखों से
देखा हो या इसकी चर्चा सुनी हो | उस जमाने में संचार मीडिया क़ी सम्पूर्ण
अनुपस्थिति तथा तुर्कों के लम्बे अत्याचारी शासन द्वारा जनित आम
जनता क़ी राजनीतिक उदासीनता के मद्देनजर यह तथ्य ( जो एक अनुमान
पर आधारित है ) काफी महत्वपूर्ण हो जाता है |हो सकता है इनमे से कुछ
नामों ने १६७९ में औरंगजेब द्वारा जजिया लगा देने के बाद औरंगजेब
के सिपाहियों को जजिया वसूलते देखा हो या स्वयं अपने हाथों दिया हो
पुनः ब्रिटिश काल में १९४२ में बलिया के कुछ अवधि के लिए अंग्रेजों के
हाथ से फिसल जाने तथा उसके बाद पुनः अंग्रेजों का बलिया पर कब्ज़ा
एवं तद्जनित दमन के कुछ लोग प्रत्यक्ष दर्शी रहे होंगें|
इन सब बातों का तात्कालिक महत्व भले कुछ ख़ास न लगे
परन्तु अपने वंश के इतने पुराने नामों को खोज निकलना अपने आप में
महत्वपूर्ण है ,विशेष तौर पर आज के शिक्षा तथा व्यवसाय के चलते अपने
मूल स्थान से विस्थापित होते एवं तेजी से अपने आप में सिकुड़ते जाते
'न्यूक्लियर' परिवारों के युग में|
अब मैं अपने इस 'ऐतिहासिक निर्माण ' के स्रोतों
के विषय में थोड़ी चर्चा करना चाहूँगा | हमारे पूर्वी उत्तर प्रदेश व बिहार
में मांगलिक आयोजनों में 'पितर नेवतनी' का एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम
होता है जो पूरी तरह से घर क़ी बड़ी बूढी महिला सदस्यों के नेतृत्व में
संचालित होता है , इस कार्यक्रम का उद्देश्य यह है कि हमने एक मांगलिक
आयोजन इश्वर की असीम अनुकम्पा से किया है तथा हम अपने पूर्वजों
का भी आह्वान करते हैं कि वो हमारे इस आयोजन में शरीक हों तथा
अपनी स्नेह दृष्टि बनाये रखें | इस पितर नेवतनी में घर कि महिलाएं
गीत गाती हैं और इन गीतों के जरिये पितरों का एक एक कर नाम
लेकर आह्वान करती हैं | इन गीतों में उस कुटुंब के तमाम पूर्वजों
के नाम छुपे होते हैं जो चूँकि वैदिक काल की भांति श्रुति -वाचिक
परंपरा में पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते रहने के कारण काफी अव्यवस्थित
होते हैं तथा उनमें मूल नामों से अपभ्रंश हो जाने की काफी गुंजाईश बनी
रहती है फिर भी किसी परिवार के इतिहास निर्माण में इन का अनगढ़
प्राथमिक स्रोत के रूप में महत्व नकारा नहीं जा सकता , तो मैंने भी इन्हें
प्राथमिक स्रोत के तौर पर इस्तेमाल किया और इनकी तस्दीक के तौर
पर जैसा मैंने पहले बताया उस समय अतीत कि श्रृंखला के रूप में कुछ
बुजुर्ग मौजूद थे तथा कुछ लिखित सामग्री भी थी जो इन स्रोतों का
समर्थन करती थी | इस तरह मैंने आज से तक़रीबन २० वर्ष पूर्व अपनी
कि शोरावास्था में इस ऐतिहासिक पुनर्निर्माण को एक बड़े कागज़ पर
उतारा ,पिछली बार जब मैं गाँव गया था तो वह कागज़ मुझे अम्मां के
बक्से में मिला ,मिलते ही मुझे इसे डिजिटल स्वरुप देकर सहेजने का
विचार मन में आया और पुनः वापस आकर माईक्रोसाफ्ट वर्ड पर उतारने
का काम तथा पुनः पीडीऍफ़ फाइल में रूपांतरण और अंततोगत्वा jpeg
फाइल बनाकर ब्लॉग पर यह पोस्ट ,कैसा लगा बताते चलियेगा और
हाँ अगली बार किसी शादी विवाह में महिलाओं को गीत गाते सुनियेगा
तो थोडा चैतन्य रहने कि जरूरत है क्या पता पारिवारिक इतिहास का
कोई 'फोसिल' हाथ लग जाये |
उत्साहवर्धन के लिये धन्यवाद 'मीणाजी,आप जयपुर के हैं और मैंने अपने ब्लॉग पर एक पुरानी पोस्ट जयपुर पर डाल रखी है ,यदि आप
ReplyDeleteउसपर भी अपनी मूल्यवान टिप्पडी से अवगत करते तो मैं अपने आप को समृद्धतर समझता
श्री संतोष कुमार चौबेजी, नमस्कार...
ReplyDeleteहिन्दी ब्लाग जगत में आपका स्वागत है, कामना है कि आप इस क्षेत्र में सर्वोच्च बुलन्दियों तक पहुंचें । आप हिन्दी के दूसरे ब्लाग्स भी देखें और अच्छा लगने पर उन्हें फालो भी करें । आप जितने अधिक ब्लाग्स को फालो करेंगे आपके अपने ब्लाग्स पर भी फालोअर्स की संख्या बढती जा सकेगी । प्राथमिक तौर पर मैं आपको मेरे ब्लाग 'नजरिया' की लिंक नीचे दे रहा हूँ आप इसका अवलोकन करें और इसे फालो भी करें । आपको निश्चित रुप से अच्छे परिणाम मिलेंगे । धन्यवाद सहित...
http://najariya.blogspot.com/
इस सुंदर से चिट्ठे के साथ आपका हिंदी ब्लॉग जगत में स्वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!
ReplyDeleteहम सभी जीवन के किसी मोड़ पर ऐसे सवालों से कभी न कभी जरूर रु-ब-रु हुए होंगे लेकिन आपने इन सवालों को जिस सुन्दर तरीके से लिपिबद्ध करने की पहल की है उसकी प्रशंसा किये बिना नहीं रहा जा सकता है| अतीत हमेशा आकर्षित करता है लेकिन उसकी पड़ताल हमेशा संवेदनशील और चुनौतीपूर्ण होता है| इस संवेदनात्मक चुनौती में उत्साहपूर्ण भागीदारी के लिए बधाई| लेकिन मन में कवि मित्र अंशुल की एक कविता बार-बार दस्तक दे रही है- आखेट पर जा कर कभी न लौटने वाली राजकुमारियां थीं/ गर्भ संभाले टहलती हुई दासियाँ थीं/ मकबरों पर रोने को थीं वेश्याएं/ इतिहास में स्त्रियाँ कहाँ थीं?
ReplyDeleteहमारे 'सफरनामे ' में इसकी भी तलाश होनी चाहिए कि 'पितर नेवतने ' का गीत स्त्रियाँ ही क्यों गाती हैं? और उनका समस्त दायित्व पितर नेवतने जैसे कर्मकांडों तक ही क्यों सीमित रहा?